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________________ सुगेधिनी टीका. सू. १५ भगवद्वन्दनार्थ सूर्याभस्य गमनव्यवस्था १२९ न्तुकमला हितान-निष्पङ्कान्-कलङ्करहितान्-कर्दमरहितान् वा,निष्कङ्कटच्छायान्-निष्कङ्कटा-निष्कवचा-आवरणरहिता तादृशी छाया-दोतिषां तान् उपघातरहितकान्तीनित्यर्थः, समभान-स्वरूपतः प्रभायुक्तात् ममरीचिकान्-बहिनिस्सृतकिरणान्, अतएव सोयोतान्--बहिरवस्थितवस्तुसमूहका शकरान, सादीयान्-मन: प्रसाद जनकान्, दर्शनीयान्-द्रष्टुं यस्यान्-सर्वकालरमणीयान्, प्रतिरूपान् सुन्दराकारान् विकरोति-क्रियशक्तयोत्पादयति ॥ १४॥ मूलम्त एणं से आभियोगिए देवे तस्स दिव्यस्त जाणविमाणस्स अंतो वहसमरजि भूमिभागं विउव्वइ । से जहा नामए आलिंगपुक्खरेइ वा नुइंगयुक्वरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइ वा आगलांडलेइ वा उरब्भचम्मेइ वा वसह चम्मेइवा वराहचम्मेइ वो सीहचम्मेइ वा वग्घचम्मेइ वा मिगचम्मेइवा छगलचम्मेइ वादीवियचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्तवितए जाणाविहपंचवण्णेहि मणीहि उवसोभिए आवडपञ्चावडसेढिपसेढि सोवत्थिय पूसमाणवगवद्वमाणगमच्छंडगमगरंडगजारमारफुल्लावलिपउमपत्त निर्मल थे अतएव नीरजम थे-सामाविक रन से रहित थे, निर्मल थेआनेवाले मैंल से रहित थे, निष्पंक थे-कलंक रहित या कीचड रहित थे, निष्कं कट छायावाले थे-आवरणरहित छायापाले दीप्तिवाले थे. अर्थात् उपघात रहित कान्तिवाले थे, सप्रम थे-स्वरूपतः प्रभा सहित थे, समरीचिक-बाहिर निकलते किरणों वाले थे. अतएव उद्योत सहित थे-बाहर की वस्तुओं के समूह के प्रकाशक थे. प्रासादीय थे-मन: प्रप्तादजनक थे. दर्शनीय थे,-नेत्र को तृप्ति करनेवाले थे. अभिरूप थे. सर्वकाल रमणीय और प्रतिरूप सुन्दर आकार वाले थे । मृ. १४॥ હતા-લંક રહિત કે કાદવ રહિત હતા નિઝંકટ છાયાવાળા હતા આવરણ રહિત છાયાવાળા દીતિવાળા હતા એટલે કે ઉપઘાત રહિત કાંતિવાળા હતા. સખત્ય હતા સ્વરૂપતઃ તે પ્રમાયુકત હતા, સમરીચિક–બહાર નીકળતા કિરણવાળા હતા, એટલા માટે ઉદ્યોત સહિત હતા–બહારની વસ્તુઓના સમૂહને પ્રકાશિત કરનારા હતા, અભિરૂપ હતાંસર્વકાળ માટે તે રમણીય હતા અને પ્રતિરૂપહિત સુંદર આકારવાળા હતાસુ. ૧૪
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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