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________________ सुबोधिनीटीका सू. १४ लय स्यगवद्वन्दनार्थ गमनव्यवस्था हलकात् कुदनलिननुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशनपत्रलहसपत्र कान् अच्छान् चावत् प्रतिरूपान् विकरोति ॥ मू० १४ ।। 'तेसिन तोरणाणं इत्यादि--- टीका--तेपी खलु तोरणानाम् उपरि-अध्यभागे अष्टाष्टमङ्गलकानि अनुपदं वक्ष्यमाणानि स्वस्तिकादिदर्पणान्तानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा स्वस्तिक-- श्रीवत्स-नन्दिकावर्त-बर्द्धमानक-भद्रासन-कलश-मत्स्यदर्पणाः । च-पुनः तेषां उप्पलहत्थए, कुनुदण लिगभगसोगंधियपोडरीयमहापोडरीयलयपत्तसहस्तपत्तहत्थए, सबरयणामए, अच्छे जाव पडिलवे विउसइ) फिर उन तोरणों के ऊपर उसने अनेक छमातिछत्रों की विकुना की अनेक छटा युगलों की विकुर्वणा की, अनेक पताकातिपताकाओं की विणा की. अनेक उत्पल समूह की. अनेक कुमुद समूह की, अनेक नलिन समूह की, तथा अनेक सुभग, सौगांधिक पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, और सहस्रपत्र के समूह की यह सब उत्पल आदि समूह सर्व रत्नमय थे. लक्ष्ण थे. घृष्ट थे, पृष्ट थे, नीरज थे. निष्पक थे, आवरण से रहित छायावाले थे, प्रभासहित थे, मरीचिओं (किरणों) सहित थे. उद्योत सहित थे. गासादीय थे, दर्शनीय थे, अभिरूप थे और प्रतिरूप थे. । टीकार्थ-उन तोरणों के ऊपर उसने इन स्वस्तिकादि दर्पणान्त आठ मङ्गलकों की विकुर्वणा की उनके नाम इस प्रकार से हैं-वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दिकावर्त, बर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्स और दर्पण. इनके कुमुदणलिण सुभग सोगांधिय पोडरीय महापोंडरीय सयपत्तसहस्स पत्तहत्थाए सम्वरयणामए, अच्छे जात्र पडिरूवे विउबइ) त्या१ पछी ते तारण। ५२ તેણે ઘણા છત્રાતિછત્રોની વિફર્વણ કરી, ઘણા પતાકાતિ પતાકાઓની વિદુર્વણ કરી. ઘણુ ઉત્પલ સમૂહોની, ઘણ કુમુદ સમાની, તેમજ ઘણા નલિન સમૂહાની, તેમજ ઘણું સુભગ, સૌગંધિક પુંડરીક, મહાપુંડરીક, શતપત્ર અને સહમ્રપત્રના સમૂહાની વિમુર્વણું કરી આ બધા ઉત્પલ વગેરે સમૂહો બધા રત્ન જડિત હતા, લણ હતા, ધૃષ્ટ-હતા મૃષ્ટ હતા, નીરજ હતા, નિષ્પક હતા, આવરણ રહિત તેમજ છાયાવાળા હતા, પ્રભા સહિત હતા, મીચીથી રહિત હતા, ઉદ્યોત સહિત હતા, પ્રસાદીય હતા, દર્શનીય હતા, અભિરૂપ હતા, અને પ્રતિરૂપ હતા. ટીકા–તેણે ઉપર તેણે સ્વસ્તિક વગેરેથી માંડીને દર્પણ સુધીની આઠે આઠ મંગલકોની વિણા કરી. તેના નામો આ પ્રમાણે છે –સ્વસ્તિક नहित, पद्धमान, मद्रासन, ४१२, मत्स्य मने पशु. त्या२ "
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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