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________________ सुबोधिनी टीका. सू. ९ भगवद्वन्दनार्थं सूर्याभस्य गमनव्यवस्था प्रतियोधने कृते सति घोषणकुतूहलदत्तण काग्रचित्तोपयुक्तमानसानां स पदात्यनीकाधिपतिर्देवः तस्मिन् घण्टारवे निशान्तप्रशाते महता महता शब्देन उद्घोषयन्नुद्घोषयन् एवमवादीत-हन्त शृण्वन्तु भवन्तः सूर्याभविमानवासिनो बहवो. वैमानिका देवाश्च देव्यश्च सूर्याभविमानपतेर्वचनं हितमुखार्थम्, आज्ञापयति भोः मूर्याभो देवः, गच्छति खलु भो सूर्याभो देवो जम्बूद्रीपं द्वोपं भारतं भविमानवासी अनेक वैमानिक देवों और देवियों को उस सुस्वर घंटा के विपुल शब्दोकी प्रतिध्वनि से शीघ्रातिशीघ्र प्रतिवोध हो गया. इस पकार उसके द्वारा प्रतिबोधन होने पर (घोसणकोउहलदिन्नकन्न एगग्ग चित्तउवउत्तमाणसाणं से पायताणीयादिवई देवे) उस पदाति अनीका. धिपति ने घोषणा के विषय में जायमान कौतूहल से जिनके कान खडे हो गये हैं और इसी से जिसका चित्त एकाग्र-निश्चल हो गया है, और घोषणा संबंधी विषय को जानने के लिये जिसका मन व्याप्त हो रहा है ऐसे उन देवों के समक्ष वह पदात्यनीकाधिपति देव (तसि धंटारवंसि णिसंतपसंतंसि) उस घंटारव के धीरे २ विलकुल शान्त हो जाने पर (महया महया सदेण उग्रोसेमाणे २ एवं वयासी) जोर जोर से बार २ घोषणा करता हुओ इस प्रकार बोला--(हंत, सुणंतु भवंतो मुरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य रियाभविमाण बदणो क्यण हियमहत्थं) बडे हर्ष की बात है, आप मूरियाभविमानवासी समस्त वैमानिक देव देवियां सूर्याभविमानपति के हितसुखार्थ वचन લ શબ્દોની પ્રતિધ્વનિએ એકદમ પ્રતિધિત કરી દીધા આ રીતે તેના વડે પ્રતિબોધિત થયા બાદ (घ.सणको उहलदिन्नकन्न एगग्ग चित्त उपउत्तमाणसाण से पायताणीचाहिबई देवे) તે પાયદળ સેના નાયકે ઘષણ માટે કૌતુહલ-ઉપન્ન થવાથી જેમના કાન ઉભા થઈ ગયા છે અને એથી જ જેમનું ચિત્ત એકાગ્ર નિશ્ચલ થઈ ગયું છે અને ઘોષણા સંબંધી વિષયને જાણવામાં જેમનું મન એકાગ્ર થઈ ગયું છે એવા તે દેશની સામે पायह सेनाना सेनापति हेवे (तंसि घंटारवंसि णिसंतपसतासि) ते घटाना पनि घामे धीमे सेम Aid 2 140 (महया मठया सदण उग्धोसेमाणे २ एवं क्यासी) र मोटर साढे चार बार घोपा ४२di मा प्रमाणे : (हत, मुग तु भवतो मूरियाभविमोगवासिणो बहवे वेमागिया देवा य देतीओ य सरियाभविमाणवइणो वयणं हियसुहत्य) पर प्रसन्नतानी पात છે કે આપ સૂર્યાભવિમાનવાસી સો વૈમાનિક દેવ દેવીઓ ભવિમાનપતિના ડિત
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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