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________________ प्रज्ञापनासूत्र भणितव्याः, नवरस् मनुष्याः क्रियामिर्ये संयतास्ते प्रसत्ताश्चाऽप्रमताश्च भणितव्याः, सरागवीतरागाः न सन्ति, वानव्यन्तरास्तेजोलेश्यायां यथा असुरकुमारा एवं ज्योतिष्कवैमानिका अपि, शेष तच्चैव, एवं पदमलेश्या अपि भणितव्या, नवरं येपामस्ति, शुक्ललेल्या अपि तथैव येषामस्ति, सर्व तथैव यश औधिकानां गमकः, नवरं पद्मलेश्याशुबललेश्ये पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकमनुष्यवैमानिकानाञ्चैव, न शेषाणामिति । प्रज्ञापनायां भगवत्यां लेश्यायां प्रथम उद्देशकः समाप्तः ।। सू० ८ ॥ स्पति, पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य (जहा ओहिया) समुच्चय के समान (लहा भाणियन्या) उसी प्रकार कहना चाहिए (नवरं) विशेष (मणूसा) मनुष्य (किरियाहि) क्रियाओं से (जे संजता ते पमत्ता य अपमता य माणियव्या) जो संयमी हैं उन्हें प्रमत्त और अप्रमत्त कहना चाहिए (सरागवीयराना नत्थि) सराग और वीतराग नहीं हैं। __ (वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुतारा) दानव्यन्तर तेजोलेश्या में असु. रकुमारों के समान (एवं जोइसित्र माणियावि) इसी प्रकार ज्योतिष्क-वैमा. निक भी (सेसं तं चेत्र) शेष वही (एवं पम्हलेस्ता वि भाणियव्या) इसी प्रकार पद्मलेश्या भी कहनी चाहिए (लवरं) जेसि अस्थि) विशेषता यह कि जिनके वह होती है (लुक्कलेस्सा वि तहेव जेसिं अत्थि) शुक्ललेश्या भी उसी प्रकार जिनके है (सव्वं तहेव) सब उसी प्रकार (जहा ओहियाणं गमओ) जैसा औधिकों का गम (नवरं) विशेष पम्हलेस्सा सुक्कलेस्साओ) पहालेश्या और शुक्ललेश्या (पंचिंदियतिरिकखजोणियमणूसवेमाणियाण चेच) पंचेन्द्रियतिर्थचों, मनुष्यों और वैमानिकों को ही होती है (न सेसा संति) शेष को नहीं हैं। (जहा ओहियों) समुध्ययनासमान (तहा माणियवा) मे रे ९ मे (नवर) विशेष (मणूसा) मनुष्य (किरियाहि) यामाथी (जे संजता ते पमत्ताय अपमत्ताय भाणि यत्वा) सयभी छे तेभने प्रमत्त भने अप्रमत्त वा नये (सरागवीयरागा नत्थि) સરાગ અને વીતરાગ નથી (वाणमंतरा तेउलेरसाए जहा असुरकुमारा) पान०य-त२ तनश्यामा सुभानी समान (एवं जोइसियवेमाणिया वि) से प्रारे ज्योति मानि: ५५ (सेसं तं चेव) शेष ते (एव पन्हलेस्ता वि भाणियव्वा) १ ४१२ पमवेश्या ५४ ४३वी मे (नवर जेसि अत्यि) विशेषता ते छ है भन त याय छे (सुबालेस्सा वि तहेव जेसि अत्थि) शु४८ सश्या ५९५ मे ४२ मत छ (सव्वं तहेव) .धु मे ॥२ (जहा ओहियाणं गमओ) २३॥ सोधिन। म (नवर) विशेष (पम्हलेस्सा सुकलेस्साओ) पहभसेश्या भने शुश्या (पंचिं दिय तिरिक्खजोणिय मगूस वेमाणिवाणं चेव) पयन्द्रियतिय या भनुप्यो भने वैमानिन सय छ (न सेसा संति) शेषने नही
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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