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________________ प्रायपोधिनी टीका पद २१ सू० ५ चैक्रियशरीरसंस्थाननिरूपणम् रम्-औघिका चानव्यन्तराः प्रक्ष्यन्ते, एवं ज्योतिष्काणामपि औधिकानाम्, एवं सौधर्म यावद अच्युतदेवशरीरम्, ग्रैवेयककल्पातीतवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरं खलु भदन्त ! कि संस्थानसंस्थित प्रज्ञसम् ? गौतम ! ग्रैवेयकदेवानामेकं अवधारणीयशरीरम्, तत् खेल समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम्, एवम् अनुत्तोपपातिकानामपि । सू० ५ ॥ टीका-पूर्व वैक्रियशरीराणां भेदाः प्ररूपिताः, सम्पति तेषामेव संस्थानानि प्ररूपयितुमाह-'वेउब्वियसरीरेणं भंते ! कि संठिए एणते ?' हे भदन्त ! वैक्रियशरीरं खलु कि संस्थानसंस्थितम्-किमाकारव्यवस्थितं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'गाणा कहा है (एवं जाव थणियकुमार देव पंचिंदिय वेउब्वियसरीरे) इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार देव पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीर (एवं वाणसंतराण चि) इसी प्रकार वानव्यन्तरों का भी (णवरं) विशेष (ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति) समुच्चय वानव्यन्तरों के विषय में प्रश्न होता है (एवं जोइलियाण वि ओहियाण) इसी प्रकार समुच्चय ज्योतिष्कों का भी (एवं लोहम्ले जाव अच्चुय देवसरीरे) इसी प्रकार सौधर्म यावत् अच्युत देवों का शरीर भी लमझ लेवें (गेवेज्जगकप्पातीत वेमाणिय देव पंचिंदिय वेउब्वियसरीरे णं भंते ! किं संठाणसंठिए पण्णत्ते ?) हे भगवन् ! ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रियोंना वैक्रियशरीर किस आकार का कहा है ? (गोयमा! गेवेज्जग देवाणं एगे अवधारणिज्जे सरीरे) हे गौतम ! ग्रैवेयक देवों का एक भवधारणीय शरीर होता है (से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्त) वह समचतुरस्त्र संस्थान वाला होता है (एवं अणुत्तरोवाइयाण वि) इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिकों का भी होता है । ___टीकार्थ-इससे पूर्व वैक्रिय शरीर के भेदों का निरूपण किया गया था, अब से उत्तरवेउब्बिए सेणं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते) तमामा रे उत्तरवैठिय छ त मन सस्थानवाणी ४i छ (एवं जाव थणियकुमारदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे) मे प्रारे થાવત્ સ્વનિતકુમાર દેવ પંચેન્દ્રિય વૈકિય શરીર પણ સમજી લેવા. ___ (एवं वाणमंतराण वि) मे रे पानव्य-तना ५Y (णवरं) विशेष (ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति) समुच्यय पान०य-तराना विषयमा प्रश्न थाय छे (एवं जोइसियाण वि ओहियाणं) स ४ारे समुव्यय न्याति ना ५ (एवं सोहम्मे जाव अच्चुय देव सरीरे) मे रे सोधम यावत् सन्युत वाना शरीर (गेवेज्जग कप्पातीत वेमाणिय देवाणं पंचिंदियवेउब्धिसरीर णं भंते ! किं संठाण संठिए पण्णत्ते ।) है भगवन् ! अवेयः ४६पातात वैमानिः हे पयन्द्रियाना वैठियशरी२ 841 २४।२ना घi छ ? (गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे) गौतम ! धैवेयर योनी से अवधारणाय शरी२ डाय छ (से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते) त समयतु२ख संस्थान डाय छे (एवं अणुत्तरोववाइयाण वि) से प्रारं मनुत्तरी५५तिजाना ५५ समनपा કાર્ય–આનાથી પૂર્વે વૈક્રિયશરીરના ભેદોનું નિરૂપણ કરેલું હતું. હવે તેમના
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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