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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १७ सू० ६ मनुष्यसमानाहारादिनिरूपणम् किरिया, तत्थणं जेते मिच्छदिट्ठी जे सम्मामिच्छदिट्टी तेसिं नियइयाओ पंचकरियओ कज्जति तं जहां आरंभिया, परिग्गहिया, मायावरिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादंसणवत्तिया, सेसं जहा नेरइया नं ॥ ८६ ॥ छाया - मनुष्याः खलु भइन्त ! सर्वे सम हाराः गौतम ! नायमर्थः समर्थः, तत् केनार्थेन एवमुच्यते - मनुष्याः नो सर्वे समाहाराः ? गौतम ! मनुष्याः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - महाशरीराच, अल्पशरीराच, तत्र खलु ये ते महाशरीरास्ते खलु बहुतरान् पुद्गलान् निःश्वसन्ति, आहत्य आहारयन्ति, आहत्य निश्वसन्ति, तत्र खलु ये ते अल्पशरीरास्ते खलु अल्पतरान् पुद्गलान् आहारयन्ति, यावद् अल्पतरान पुगलान् निःश्वसन्ति, अभीक्ष्णम् आहारयन्ति यावद् मनुष्य के लनानाहारादि की वक्तव्यता ४७ शब्दार्थ - (मनुस्सा णं संते ! सबै समाहारा ?) हे भगवन् ! धनुष्य सभीसमान आहारवाले हैं ? (गोयमा ! जो इणट्टे समहे) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है (लेट्टे एवं वुच्चइ) किस कारण से ऐसा कहा जाता है (मनुस्सा णो सच्चे समाहारा ?) मनुष्य सब समान आहारवाले नहीं हैं ? (गोयमा ! मस्सा दुविहा पण्णत्ता) हे गौनम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे हैं (तं जहा) वे इस प्रकार (महासरीरा य अप्पसरीरा य) महान् शरीरवाले और अल्प अर्थात् छोटे शरीर वाले (तत्थ णं जे ते महासरीरा) उनमें जो महाशरीर वाले हैं (ते णं बहुतराए पोग्गले) वे बहुतर पुलों का ( आहारे ति) आहार करते हैं (जाव बहुतराए शेरले नीति) यावत् बहुतर पुद्गगलो का नि:श्वास लेते हैं (आहच्च) कदाचित् (आहारैति) आहार करते हैं (जाव) यावत् (आहच्च नीससंति) कदाचित् निःश्वास लेते हैं (तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा) उनमें जो अल्पशरीर वाले हैं (ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेति) वे अल्पतर पुगलो का મનુષ્યના સમાનાહારાદિની વક્તવ્યતા शब्दार्थ (मसाणं मंते । सब्वे समाहारा १) हे भगवन् ! भनुष्य गधा समान आहार वाजा छे ? (गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे) हे गौतम! या अर्थ समर्थ नथी ( से केणेणं एवं वुच्चइ) शा धरा मे शय छे (मनुस्सा णो सव्वे समाहारा १) अधा भनुष्य समान आहारवाणा नथी ? (गोयमा । मणुस्सा दुबिहा पण्णत्ता) हे गौतम । भनुष्य मे अारना ४ छे (तं जहा तेथे या अरे (महा सरीराय अपसरीराय ) भडान् शरीरवाणा भने नाना शरीरवाणा छे ( तत्थ णं जे ते महासरीग) तेयामां ने महाशरीरवाणा छे. ( तेणं बहुतराए पोग्गले ) ते धणा मधा युद्गोनो (आहा रे ति) डार हरे छे (जाव बहुतराए पोग्गले नीससंति) यावत् घथा युगसेो नेो निःश्वास से छे (आहच्च) ४हान्थित् ( आहा रे ति) आहार ४२ छे. (जाव) यावत् (आइच्च नीससंति) हाथित् निःश्वास से छे (तथ णं जे ते 2
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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