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________________ ६०० प्रज्ञापना अणुसद् महद् भवति महच्च सद् अणु भवति एवं खेचरं सद् भूमिवरं भवति भूमिचरं सत् खेचरं भवति एवं दृश्यं सद् अदृश्यं भवति अदृश्य सद् दृश्य भवति तद् वैक्रियं शरीरं व्य पदिश्यते तच्च द्विप्रकारकं भवति औपपातिक-लब्धिप्रत्ययभेदात्, तत्रौपपातिकं चैक्रियश रीरम् उपपातात्मकर्जन्मनिर्मितम् यथा देवनैरयि कागाम, लब्धिप्रत्ययं तु तिर्यग्योनिक मनुष्याणामवसे म्, एवम्-माहियते चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकृत्स्फाति दर्शनादिक तथाविधप्रयोजने समुपस्थिते सति विशिष्ट लब्धिवशाद् निर्व र्यते यत् तद् आहारकं शरीरं व्यपदिश्यते, 'कृदबहुलम्' इति बाहुलकात् कर्मगिण्वुलूप्रत्ययः पादहारकादिवत् तथा चोक्तम्-'कजम्मि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं एत्थ आहरिजइ भणियं आहारगं तं तु'।१।। कार्ये समुत्पन्ने श्रतकेवलिना विशिष्ट लब्ध्या । यत्राहियते भणितमाहारकं तंतु । १।। इति, अनेक होता हुआ एक हो जाता छोटे से बड़ा और बडे से छोटा हो जाता है, आकाश चारी से भूचर और भूचर से आकाशचारी बन जाता है, दृश्य होता हुआ अदृश्य और आदृश्य होता हुआ दृश्य हो जाता है, वह शरीर वैक्रियक कहलाता है ! वैक्रिय शरीर दो प्रकार का है जन्मजात और लब्धिनिमित्त का उपपात जन्न वाले देवों और नारकों का जन्मजात वैक्रिय शरीर होता है और लब्धिनिमित्तक निर्यचों और मनुष्यों में-किसी-किसी में पाया जाता है। चौरह पूर्वधारी मुनि तीर्थकर अतिशय देखने आदि के प्रयोजन से विशिष्ट आहारक नामक लब्धि से जिस शरीर का निर्माण करते हैं, वह आहारकशरीर कहलाता है। (कृद् हुलम् ) इस सूत्र से कर्म अर्थ में ण्वुल प्रत्यय होकर आहारक शब्द सिद्ध होता है, जैसे पादहारक। कहा भी है-प्रयोजन उत्पन्न होने पर केवली के यहां जाने के लिये विशिष्ट लब्धि के निमित्त से जो शरीर निर्मित किया जाता है, वह आहारकशरीर कहलाता है ॥१॥ यह शरीर वैक्रिय शरीर થઈ જાય છે, નાના મેટા, મોટા નાના થઈ જાય છે, આકાશચારીમાથી ભૂચર અને ભૂચરથી આકાશચારી બની જાય છે દશ્ય હોવા છતાં અદશ્ય, અને અદશ્ય હોવા છતાં દશ્ય થઈ જાય છે, તે શરીર વૈકિય કહેવાય છે. વૈક્રિય શરીર બે પ્રકારના છે- જન્મજાત અને લબ્ધિ નિમિત્તક ઉ૫પાત જમવાળા દેવ અને નારકને જન્મજાત વૈકિયશરીર હોય છે અને લબ્ધિ નિમિત્તક તિય અને મનુષ્યમાં કઈ કઈમાં મળી આવે છે. ચીક પૂર્વધારી મુનિ તીર્થકરના અતિશય જેવા આદિના પ્રજનથી વિશિષ્ટ આહારક નામક લબ્ધિથી જે શરીરનું નિર્માણ કરે છે, તે આહારકશરીર કહેવાય છે. 'कृद्वहुलम्' मे सूत्रयी ४ अ भा ‘ण्वुलू' प्रत्यय २/२ मा २४' श६ सिद्ध थाय छ, म 'पा ह रक' धुं पर छ-योन 64न्न थता पसीना त्यांचवाने भाटे વિશિષ્ટ લબ્ધિના નિમિત્તથી જે શરીર નિર્મિત કરાય છે, તે આહારકશરીર કહેવાય છે. ૧ આ શરીર વેક્રિયશરીરની અપેક્ષાએ ઉત્પન્ન શુભ અને રવ સ્ફટિક શિલાના
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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