SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रज्ञापनाव ५०६ शीलं वा यावत् पोपधोपवासं वा प्रतिपत्तुं स खलु अवधिज्ञानमुत्पादयेत् ? गौतम ! अस्त्येको उत्पादयेत्, अस्त्येको नो उत्पादयेत, यः खलु भदन्त ! अवधिज्ञानमुपादयेत् स मल शक्नुयात् मुण्डो भूत्या अगाराद् अनवारितां प्रत्रमितुम् ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, नैरयिकः खलु भदन्त ! नैरपिकेभ्योऽनन्तरम् उद्वृश्य मनुष्येषु उपपद्येत ? गाँवम ! अस्त्येक उत्पादयेत्, अस्त्येको नोत्पादयेत् यः खलु भदन्त ! उत्पादयेत् स खल केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं लभेत श्रवणतया ? गौतम ! यथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु यावद, यः खलु भदन्त ! अवधिज्ञानमुत्पादयेत् स खलु शक्नुयात् मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारिकतां संचाएज्जा) हे गौतम ! कोई समर्थ होता है, कोई समर्थ नहीं होता (जेणं भंते ! संचारज्जा सीलं वा जाब पोसहोदवास वा पडिवज्जित्तए) हे भगवन्! जो शील यावत पोषधोपवास अंगीकार करने को समर्थ होता है (से णं ओरिनाणं उप्पाडेज्जा ?) वह अवधिज्ञान को प्राप्त करता है ? (गोगमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो उप्पाडेज्जा) हे गौतम ! कोई प्राप्त करता है, कोई प्राप्त नहीं करता ( जेणं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा) जो अवधिज्ञान को प्राप्त करता है, वह क्या समर्थ होता है (मुंडे भवित्ता) मुंडित होकर (आगाराओ) गृह से ( अणगारियं) अनगारपनको (पचहत्तर) प्रवजित होने को ? (गोना अत्थे संवापज्जा, अत्थेगए तो संचाएज्जा) हे गौतम! कोई समर्थ होता है, कोई समर्थ नहीं होता (जे णं संचाएजा मुंडे भवित्ता आगा राम अगरियं पव्वत्तर) जो मुंडित होकर गृहत्याग करके संयम अंगीकार करने का समर्थ होता है (से णं मणयजवनाणं उप्पाडेजा ?) वह मनः पर्यवज्ञान प्राप्त करता है ? (गोमा ! अत्थेगईए उप्पाडेजा, अत्थेगहए णो उप्पाडेज्जा) हे ४२वाने भाटे समर्थ' थाय छे ? (गोयमा । अत्थेगइया संचाएज्जा, अत्येगईया णो संचाएज्जा) हे गोतम | असमर्थ थाय है, अई समर्थ' नथी धता (जे णं भंते ! संचाएज्जा सीलं वा जाव पोसोववासं वा पडिवज्जित्तए) हे भगवन् । मे शीस यावत् चषिधे यवास सगीर ४२वाने समर्थ थाय छे (से णं ओहिनाणं उपाडेज्जा) ते अवधिज्ञानने आप्त ४रे हे ? (गोयना ! अत्येगइए उप डेज्जा, अत्येगइए णो उपाडेज्जा) हे गौतम | प्राप्त रे, ફાઇ પ્રાપ્ત નથી કરતા (जे णं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, से णं संचाएज्जा) ने अवधिज्ञानने प्राप्त पुरे छे, ते शुं समर्थ ! छे (डेभवित्ता) भुडित थने (आगाराओ) गृहस्थथी (अनगारियं) गुगारपाने (पव्यत्तए) प्रति थवाने ? (गोयमा ! अत्येगईए संचाएन्जा, अत्येगइए नो संचाएज्जा हे गौतम | असमर्थ होय छे, । समर्थ नथी थता ( जेणं संचाएज्जा मुंडे भत्रित्ता आधाराओ अणगारियं पव्वइत्तए) ने भुडित थने गृहत्याग हरीने सत्यम शीर ४२वाने समर्थ थाय हो (से णं मणपज्जव नाणं उपाडेज्जा १ ते मनः पर्यवज्ञान प्राप्त ४ ४ ४
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy