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________________ प्रमेयबोधिनी टोका पद १८ सू.० १६ अंतक्रियापदनिरूपणम् ४८७ त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिया नो अनन्तरागता अन्तक्रिया प्रकुर्वन्ति, परम्परागता अन्तक्रिया प्रकुर्वन्ति, शेषा अनन्तरागता अपि अन्तक्रिया प्रकुर्वन्ति परम्परागता अपि अन्तक्रियां प्रकुर्वन्ति । सू० १॥ ___टीका-अथान्तक्रियां प्ररूपयितुमाह-'जीवेणं भंते ! अंतकिरियं करेजा ?' हे भदन्त ! जीवः खलु किम् अन्तक्रियाम्-अन्तस्व-अवसानस्य-कर्मणां पर्यवसानस्येत्यर्थः क्रियाकरणम् अन्तक्रिया-कर्मान्तकरणम्-मोक्ष इतिभावः, तथा चोहम्-'कृत्स्ना.मक्षयान्मोक्षः' इति, ताम्-अन्तक्रियां कुर्यात् ? अगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'अत्थेगइए करेजा, अत्यंगइए णो करेज ना' अस्त्येकः कश्चिनीनः अन्तक्रियां कुर्यात्, अस्त्येकः कश्चिद् अन्तक्रियां नो कुर्यात्, तथा च यस्तथाविध भव्यत्यपरिपाकवशात् मनुष्यखादिरूपाम् सम्पूर्णा सामग्रीमुपलभ्य तत्सामाभिव्यक्तातिप्रवलनीयोल्लासवशेन क्षपश्रेणी समारोहणेन केवअन्तक्रिया करते हैं(तेउ बाउ बेइंडियोइंदिय चउरिदिया णो अणंतरागया अंतकिरियं पकरें नि, परंपरागया अंततिरियं पकरेंति) तेजस्कायिक, वायुकायिका, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रि अनन्तरागन अन्तक्रिया नहीं करते, परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं (सेसा अणंतरागयाधि अंतकिरियं पकरे ति, परंपरागया वि अंतकिरियं पकरे ति) शेष अनन्तरागत भी अन्तक्रिया करते हैं, परम्परागत भी अन्तक्रिया करते हैं अब अन्तक्रिया का निरूपण किया जाता हैटीकार्थ-गौतमस्वामी-हे भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? यहाँ अन्तक्रिया का अर्थ है-कर्मों का अन्त करना अर्थात् मुक्ति प्राप्त करना । कहा भी है समस्त कर्मों के क्षय से मोक्ष होता हैं। भगवान् उत्तर देते हैं-हे गौतम ! कोई जीव अन्तक्रिया करता है, कोई नहीं करता है। जो जीव भव्यत्व भाव के परिपाक से मनुष्यस्व आदि सम्पूर्ण ५२५२॥त पथ मन्तया ४२ छ (तेउवाउ वेइंदिय तेइंदिय चउरिदिया णोअणंतरागया अंतकिरियं पकरे ति परंपरागया अंतकिरियं पकरें ति) avail4s, वायुय४, बन्द्रिय, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય, અનન્તરાગત, અન્તક્રિયા નથી કરતા, પરંપરાગત અન્તકિયા કરે છે (सेसा अणंतरागया त्रि अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया वि अंतकिरियं पकरे ति) शेष मानન્તરાગત પણ અંતક્રિયા કરે છે, પર પરાગત પણ અન્તક્રિયા કરે છે. ટીકાર્થ-અન્તકિયાનું નિરૂપણ કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી-હે ભગવન્! શું જવ અન્તક્રિયા કરે છે? અહી અનક્રિયાને અર્થ છે-કર્મોને અંત કરે અર્થાત મુક્તિ પ્રાપ્ત કરવી, કહ્યું પણ છે “સમસ્ત કર્મોના ક્ષયથી મેક્ષ થાય છે. શ્રી ભગવાન-ઉત્તર આપે છેહે ગૌતમ ! કોઈ જીવ અન્તકિયાં કરે છે, કેઈ નથી કરતા, જે જીવ ભવ્યત્વ ભાવના પરિપાકથી મનુષ્યત્વ આદિ સંપૂર્ણ સામગ્રી પ્રાપ્ત કરીને
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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