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________________ प्रमेयधोधिनी टीका पद १८ १.० ११ दर्शनद्वारनिरूपणम् इति चेदत्रोच्यते-प्रकृते विभङ्ग अधिदर्शनप्रतिपादकसूत्रत्यायमभिप्राय:-विभङ्गज्ञानस्य विशेषविषयत्वात्, अवविदर्शनस्य व सामात्यविषयत्वात्, यथा सम्पदृष्टेः विशेषविषयमवधिज्ञान सामान्यविषयावभिदर्शनाच्यते तथा क्षेवलं विमङ्गज्ञानिनोऽपि अवधिदर्शनमनाकारमात्रत्वेनाविशिष्टत्शात्, अवपिज्ञानिनोऽवदिनितुल्य मति तदाप अवधिदर्शनछुच्यते, न विमङ्गदर्शन मिति, गौतमः पृच्छति- केवलदसमीण पुच्छा' हे भइन्त ! के श्लदर्शनी खलु केवलदनित्वपीयविशिष्टः सन् माछापेक्षया वियत्कालपर्यन्तं निरन्तरमवतिष्ठते ? इति पृच्छा भगवानाह-पोयमा !' हे गौतन ! 'साईए अपनवसिए' सादिकोऽपर्यासितः खलु केवलदर्शनो मयति, तथा च केवलज्ञानी साधयासितः प्रतिपादित स्नस्य परिपाताभावात् तथा केलार्शनी अपि साद्यपर्यवशितो व्यादिश्यते नस्यापि परिषातासंभवात, 'दारं ११' एकादशं दर्शनद्वारं समाप्तम् ॥ सू० ११ ।। धिदर्शन का होगा क्यों कहा गया है ? समाधान-यहां विभंग-अबस्था में अवधिदर्शन के प्रतिपादक सूत्र का अभि प्राय यह है-विभंगज्ञान वस्तु के दिशेषों को जानता है और अवधि दर्शन सामान्य अंश को विषय करता है। अतः जैहले सम्यग्दृष्टि का विशेष विषयक अवधि ज्ञान और सामान्य विषयक अवधिदर्शन कहलाता है, उसी प्रकार विमंगलानी का अवधिदर्शन भी अनाकार मात्र होने से भवधिज्ञानी के अवधि दर्शन के समान ही है। यही कारण है कि विसंगक्षानी का विभङ्गज्ञान भी अवधिदर्शन ही कहलाता है, विनदर्श नहीं कहलाता। गौतमस्वामी हे भगवन् ! देवलदर्शनी लगातार कितने काल तक केवल दर्शनी रहता है ? भगवन् -हे गौतम! केवदर्शनी सादि अनन्त होता है, क्योंकि केवल ज्ञानी सादि अनन्त कहा गया है, कारण कि उसका प्रतिपात (गिरना) नहीं होना, उसी प्रकार केवलदर्शनी भी सादि अनन्त कहलाता है, क्यों कि उसका સમાધાન-અહી વિભાગ અવસ્થામાં અવધિદર્શનના પ્રતિપાદક સૂત્રને અભિપ્રાય આ છે વિભળજ્ઞાન વસ્તુના વિશેષ ધને જાણે છે અને અવધિદર્શન સામાન્ય અંશને વિષય કરે છે. તેથી જેમ સમ્યગ્દષ્ટિનું વિશેષવિષપક અવધિજ્ઞાન અને સામાન્ય વિષયક અવધિદર્શન પણ અનાકારમાં હેવ થી અવધિજ્ઞાનીના અવધિદર્શનના સમાન જ છે, એ કારણ છે કે વિર્ભાગજ્ઞાનીનુ વિજ્ઞાન પણ અધિકાશની જ કહેવાય છે, વિભ ગદશન કહેવાતું નથી - શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન કેવલની નિરતર કેટલા સમય સુધી કેરલદર્શની શ્રી ભગવાન-હે ગૌતમ! કેવલદની રાદિ અનન્ત હોય છે, કેમકે કેવલજ્ઞાની સાદ, અનન્ત કહેલ છે તેને પ્રતિપાત (પડવુ) થતું નથી એજ પ્રકારે કેવલની સાદિનિત
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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