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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १८ ४० १० शानद्वारनिरूपणम् ४३३ ओस प्पिणीओ कालओ' अनन्ता उत्सविण्यवसापिण्यः कालः-झालापेक्षया अवसेयाः 'खेसो अवडपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण' क्षेत्रत:-क्षेत्रापेक्षया अपार्द्धपुद्गलपरिवत देशोनम् यावद् अनन्तकालः प्रज्ञप्तः, तदनन्तर मवश्यं सम्यक्त्वप्राप्तेरज्ञानित्वापगमसंभवात, एवं मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी चापि त्रिविधः प्ररूपणीयः, गौतमः पृच्छति-'विभंगणाणी णं भंते ! पुच्छा' हे भदन्त ! विभङ्गज्ञानी सल विभज्ञानित्वपर्याय विशिष्टः सन् कालापेक्षया कियत्कालपर्यन्तमध्यच्छेदेन अवतिष्ठते ? इति पृच्छा, भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जहणणं एगं समयं उकोसेणं तेत्तीसं सागरमाई देखूणाए पुग्यकोडीए अमवहियाई, जघन्येन एक समयम् , उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशत्यागशेपमाणि देशोनपूर्वकोटयभ्यधिकानि यावद्विभङ्गज्ञानी विभङ्गज्ञानित्वपर्याय विशिष्टः सन निरन्तरमबतिष्ठते तथा च जघन्येन एकसमयो यथा कश्चित्पश्चेन्द्रियनिर्यग्यौनिक मनुष्यो देवो वा सम्यक्त्वदृष्टित्या दवधिज्ञानी भूत्वा है इसका कारण पहले कहा जा चुका है। उस अनन्त काल का परिमाण इस प्रकार है-काल की अपेक्षा अनन्त उत्सर्पिणी और अबपरिणी, क्षेत्र की अपेक्षा से देगोल अपार्ध पुद्गलपरावर्तन नक अज्ञानी रहता है। इतने काल के अनन्तर उस जीव को अवश्य ही लम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और उसका अज्ञान परिणाम दूर हो जाता है । इसी प्रकार मत्यज्ञानी और श्रुता ज्ञानी के विषय में भी समझ लेना चाहिए वे भी तीन-तीन प्रकार के हैं और उनमें से सादि सपर्यवसित का अवस्थान काल जघन्य अन्तटुहर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। . गौतमस्वामी-हे भगवन् ! विभंग ज्ञानी लगातार विभंगज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? . __ भगवान्-हे गौतन ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक विभंगज्ञानी निरन्तर विधगज्ञानी बना रहता है। जय कोई पंचेन्द्रिय तियच, मनुव्य अथवा देव सम्यग्दृष्टि होसर अवधिज्ञानी होता અનન્ત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ દેશોન અપાઈ પદગલ પરાવત, સુધી અજ્ઞાની રહે છે. એટલા માળ પછી તે જીવને અવશ્ય જ સમ્યકત્વની પ્રાપ્તી થઈ જાય છે અને તેનું અજ્ઞાન પરિણામ દૂર થઈ જાય છે. એજ પ્રકારે મત્યજ્ઞાની અને શ્રુતજ્ઞાનના વિષયમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. તેઓ પણ ત્રણ ત્રણ પ્રકારના છે અને તેમાં સાદિ સપર્યાવતિનું અવસ્થાનકાલ જઘન્ય અન્તર્મુહન અને ઉત્કૃષ્ટ દેશના પૂર્વકટ છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન્! વિસંગજ્ઞાની નિરન્તર વિર્ભાગજ્ઞાનના રૂપમાં કેટલા કાળ સુધી રહે છે? શ્રી ભગવન-જઘન્ય એક સમય, ઉત્કૃષ્ટ કેશાન પૂ વકેટિ અધિક તેની સાગરોપમ સુધી વિસંગજ્ઞાની નિરાર વિભંગઝની બની રહે છે. જ્યારે કેઈ પંચેન્દ્રિય તિર્યંચા,
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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