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________________ १०२ प्रशापनास्त्रे सादिको वा सपर्यवसितः, यावत् अप'ईः पुद्गलपरिवतों देशोनः, क्रोधकपायी खलु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! जघन्येन उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तम्, एवं शायद् मानमाया कपायी, लोभकपायी खलु भदन्त ! लोभकषायी इति पृच्छा, गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कृष्टेन अन्तर्मुहतम्, अकयायी खलु भदन्त ! अकषायी इति कालतः फिर चिरं भवति ? गौतम ! अकषायी द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सादिको वा अपर्यवसितः, सादिको वा सपर्यवसितः, तत्र खलु यः स सादिकः सपर्यवसितः स जघन्येन एक समयम् . उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्नम्, द्वारम् ७ ॥९० ७॥ सायी तिविहे पणत्ते) हे गौतम ! सकपायी जीव तीन प्रकार के कहे हैं (तं जहा) वे इस प्रकार (अणादीए वा अपज्जवसिए) अनादि अनन्त (अणादीए वा सपज्जवसिए) अनादि सान्त (सादीए वा सपज्जवलिए) अथवा सादि सान्त (जाव अवड्ढं पोग्गलपरियटै देखणं) यावत् देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्सन (कोह कसाई णं संते ! पुच्छा ?) हे भगवन ! क्रोधकषायी संबंधी प्रश्न ? (गोयमा ! जहण्णेणं उक्कोसेणं अंतो/हुत्तं) हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्त मुहर्त तक (एवं जाच माणमाशकसाई) इसी प्रकार यावत् मानकषायी माया कषायी (लोभकलाई णं भंते ! लोभकसाइत्ति पुच्छा ?) हे भगवन् ! लोभकषायी कितने काल तक लोभ कषायी रहता है, ऐसा प्रश्न ? (गोयमा ! जहाणेणं एक समयं उकोसेणं अंतोमुहत्तं)हे गौतम ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहत्ते (अकसाई णं भंते ! अनलाइ त्ति कालो केचिरं होइ १) हे भगवन् ! अकषायी कितने काल तक अकषायो रहता है ? (गोयमा ! अकसाई दुविहे पण्णत्ते) हे गौतम ! अकषायी दो प्रकार के कहे हैं (तं जहा-सादीए वा अपज्ज. ड जीतम । सवाया न ४२ छ (तं जहा) तसा मा प्रारे छे (अणादीए वा अपज्जवसिए) मनाहि मन-1 (अणादीए वा सपनवसिए) मनाहि सात (सादाए वा सपज्जवसिए) 4241 स सान्त (जाव अवडढं पोग्गलपरिय, देसूर्ण) यावत् ६शान અપાઈ પુદ્ગલપરાવર્તન. (कोहकसाई णं भंते | पुच्छा) है भावान ! और षायी सम्पन्धी प्रश्न (गोयमा । जहण्णेणं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त) ७ गौतम ! धन्य स ट भन्नत सुधी (एवं जाव माणमायाकसाई) से प्रारे यावत् भान पायी भने मायापायी (लोभकसाईणं भंते । लोभकसाइत्ति पुच्छा ) भगवन् ! सामायी है। समर भुवा भाषायी रहेछ ? मेरो प्रश्न (गोयमा । जहण्जेणं एकं समय उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं) ॐ गौतम | घन्य ४ समय, उत्कृष्टम-19. (अकसाई णं भंते ! अकसाईत्ति काल ओ केवच्चिरं होई) मावन् ! मषायी टक्षा Bण सुधी माया २४ छ ? (गोयमा । अकसाई दुविहे पण्णत्ते) 3 गीतमा माना छ (तजा सादीए चा अमजनसिप सादीए :वा सपज्जवासमा भा " 1 અકષાયી છે
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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