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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १७ २०१६ लेश्यापरिणमनिरूपणम् २१५ इति, तथा यथा च क्षीरस्वरूपकारणवर्तिनी रूपादय स्तकादि रूपादि भावं प्राप्नुवन्ति, अथवा शुद्ध वस्त्रस्वरूपकारणवर्तिनो रूपादयो रक्तादि द्रव्यरूपादि भावं प्राप्नुवन्ति तथा कृष्णलेश्यायोग्यद्रव्यात्मककारणवतिनो रूपादयो नीललेश्यायोग्यद्रव्यवृत्तिरूपादि भावं प्राप्नुवन्तीति फलितम्, 'एवं एएणं अभिलावेणं नीललेस्सा काउलेस्सं पप्प, काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं एप्प जाव भुजो भुजो परिणमइ' एवम्-उक्तरीत्या एतेन-उपर्युक्तेन अभिलापेन-आलापेन नीललेश्या कापोतलेश्या प्राप्य, कापोतलेश्या तेजोलेश्यां प्राप्य, तेजोलेश्या पदमलेश्यां प्राप्य, पद्मलेश्या शुक्ललेश्यां प्राप्य यावत्-तद्रूपतया, तद्ववर्णतया, तद्गन्धतया, तद्रसतया, तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमति, तदेवं पूर्वलेश्या उत्तरोत्तरलेश्यां प्राप्य तद्रूपादितया परिणमति इत्युक्तम्, अयैकैकस्या लेश्याया यथायोग्य क्रमेण इतरसमस्तलेश्या परिणमनम् आह-'से नूणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्प्ले काउलेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस मुक्कलेस्सं पप्प ता रूवत्ताए ता वण्णत्ताए ता गंधत्ताए ता रसत्ताए ता फासत्ताए भुजो भुजो परिणमइ ?' हे भदन्त ! तत्-अथ नूनं किम् कृष्णलेश्या नीललेश्यां कापोतलेश्यां तेजोलेश्यां पगलेश्यां शुक्ललेश्यां प्राप्य-परस्पर तत्तदवयवसंस्पर्शमासाद्य तद्रूपतया-नीलादि लेश्या योग्य द्रव्यरूपतया, तद्वर्णतया-नीलादिलेश्या योग्य द्रव्यवर्णतया, तद्गन्धतया-नीलादिलेश्या योग्य द्रव्यगन्धतया, तद्रसतयानीलादिळेश्या योग्य द्रव्यरसतया, तत्स्पर्शतया-नीलादिलेश्या योग्य द्रव्यस्पर्शतया भूयो भूयः परिणमति ? एकस्या लेश्यायाः परस्परविरुद्धतया युगपदनेकलेश्या परिणामासंभवात् होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के स्वरूप में और उसी के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है । यहां यह बतलाया गया है कि पूर्व-पूर्वलेश्या उत्तर-उत्तर लेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में परिणत होती है, किन्तु अब यह दिखलाते हैं कि कोई भी एक अन्य समस्त लेश्याओं के रूप में परिणत होती है गौतमस्वामी-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेझ्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त करके उन्हीं के स्वरूप में, उन्हीं के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के रूप में वारंवार परिणत होती है ? एकलेश्या में રવરૂપમાં અને તેના વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શના રૂપમાં વારંવાર પરિણત થઈ જાય છે. અહીં એ બતાવ્યું છે કે પૂર્વ પૂર્વની લેશ્યા ઉત્તર ઉત્તરની વેશ્યાને પામીને તેના જ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે પણ હવે એ બતાવે છે કે કોઈ પણ એક લેશ્યા અન્ય સમસ્ત લેશ્વાઓના રૂપમાં પરિણત થાય છે. __श्री गौतभस्वाभी- समपन् ! वेश्या शु नौसलेश्या, पोतसेश्या, तेश्या , પદ્મશ્યા અને શુકલતેશ્યાને પ્રાપ્ત કરીને તેનાજ વરૂપમાં, તેનાજ વર્ણ, ગંધ, રસ, અને ૫ના રૂપમાં વારંવાર પરિણત થાય છે દેશ્યામાં પાર વિરોધી પરિણમત
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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