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________________ प्रमेयबोधिनी टोका पद १७ सू० १५ लेश्याश्रयज्ञाननिरूपणम् २०१० मनःपर्यवज्ञानेषु भवेत्, चतुषु भवन आभिनियोधिकश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानेषु भवेत, एवं यावत्-पद्मलेश्यः, शुक्ललेश्यः खलु भदन्त ! जीवः कतिषु ज्ञानेषु भवेत् ? गौतम ! द्वयोर्वा त्रिषु वा चतुर्पु वा भवेत्, द्वयोर्भवन् आभिनियोधिकज्ञाने एवं यथैव कृष्णलेश्यानां तथैव भणितव्यम् यावत् चतुर्भिः, एकस्मिन् ज्ञाने भवेत्, एकस्मिन् केवलज्ञाने भवेत्, प्रज्ञापनायां भगवत्यां लेश्यापदे तृतीय उद्देशकः समाप्तः ॥ सू०१५ ॥ ओहिनाणेसु होना) तीन में होतो आभिनिवोधिक, श्रुत और अवधिज्ञान में हो ( अहवा तिसु होमाणे आभिणियोहियसुयनाणमणपजवनाणेसु होजा) अथवा तीन में होतो आभिनिबोधिक, श्रुत और मनापर्यवज्ञान में हो (चउसु होमाणे आभिणियोहियसुयओहिमणपज्जवनाणेसु होज्जा) चार में होतो आभिनियोधिक, श्रुत, अवधि और मन:पर्यवज्ञान में हो (एवं जाव पम्हलेस्से इसी प्रकार पद्मलेश्या वाले जीव को भी समझ लेवे।। . (सुक्कलेस्से णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होज्जा ?) हे भगवन् ! शुक्ललेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? (गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होज्जा) हे गौतम ! दो, तीन अथवा चार में होता है (दोसु होमाणे आभिणियोहियनाण एवं जहेव कण्ह लेस्साणं तहेव भाणियव्व) दो होतो आभिनि योधिक और श्रुत में, इस प्रकार कृष्ण लेश्या वालों की तरह कहना चाहिए (जाव चउहिं) यावत् चार ज्ञानों में (एगंसि होज्जा) एक ज्ञान में होता है तो (एगंमि केवलनाणे होज्जा) एक में केवलज्ञान में होता है . .(पण्णवणाए भगवईए लेस्सापए तइओ उद्देसओ समत्तो) प्रज्ञापना भगवती के लेश्यापद में तीसरा उद्देशक समाप्त) नाणेसु होज्जा) महायता मालिनीमाधि४, श्रुत मन मधिज्ञानमा खाय (अहवा तीस होमाणे आमिनिबोहिय सुयनाण मणपज्जवनाणेसु होज्जा) Aथा मा डाय तो मानि. नामाथि४, श्रु भने मनःपय ज्ञानमा डाय छे (चउसु होमाणे आभिणिबोहियसुयओहिमणपज्जवनाणेसु होज्जा) यारमा डाय तो मानिनामाथि४, श्रुत, Aqधि मन मन:५य ज्ञानभां डाय (एवं जाव पम्हलेस्से) मे रे ५भसेश्या वान ५ समन्वा. (सुकलेस्सेणं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होज्जा) , मापन् । शुसवेश्यापामा १ 32॥ ज्ञानामा डाय छ ? (गोयमा ! दोसु वा तिसु वा, चउसु वा, होज्जा) 3 गीतम! 2. त्रय मया यारमा डाय छ (दोसु होमाणे आभिणिवोहिनाण एवं जहेव कण्हलेस्साणं तहेव भाणियव्बं) मेमा डाय तो यामिनीमाधि, मन श्रुतज्ञानभां, ये ४ारे सेश्यायानी रेभ यु नये (जाव चउहिं) यावत् यार ज्ञानामा (एगंसि होज्जा) मे४ ज्ञानमा हाय तो (एगंमि केरल नाणे होज्जा) समां ज्ञान डाय छे. ___ (पण्णवणाए भगवईए लेस्सापए तइओ उद्देसओ समत्तो (प्रशायना भगवतीना से२५॥ ५४मा श्रीन उद्देशक समारत) ३० २६
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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