SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशीपनाले कियत् क्षेत्रं जानाति पश्यति ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'बहुतरागं खेत्तं जाणार पासइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ' बहुतरं क्षेत्रं जानाति पश्यति यावत्-दरतरं क्षेत्र जानाति पश्यति, वितिमिरतर क्षेत्रं जानाति पश्यति, विशुद्धतरं क्षेत्रं जानाति पश्यति. गौतमः पृच्छति-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-काउले स्से णं नेरइए जाव विसुद्धतरागं खेतं पासइ ?' हे भदन्त ! तत्-अथ केनार्थेन कथं तावद् एवम्-उक्तरीत्या उच्यते-कापोतलेश्यः खलु नैरयिको यावत्-बहुतरं क्षेत्रं जानाति पश्यति, दुरतरं क्षेत्रं जानाति पश्यति, वितिमिरतरं क्षेत्रं जानाति पश्यति, विशुद्धतरं क्षेत्रं जानाति इति ? भगवानाइ-'गोयमा !' हे गौतम ! 'से जहा नामए केइ पुरिसे वहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाश्री पव्वयं दुरूहइ दुरूहित्ता दो वि पाए उच्वावइत्ता सव्वओ समंता समभिलोएन्जा' तत्-अथ यथानामेति दृष्टान्ते कश्चित् पुरुषो बहुसमरमगीयाद् भूमिभागात् पर्वतमारोहति, आरुह्य द्वावपि पादौ उच्चैः कृत्वा सर्वतः-सर्वदिक्षु, समन्तात्-सर्वदिक्षु समभिलोकेत, 'तए णं से पुरिसे पव्ययगयं धरणितलगयं च परिसं वाले नारक की अपेक्षा अवधि द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में अव. लोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता-देखता है ? भगवान्-हे गौतम ! बहुतर क्षेत्र को जानता-देखता है, दूरतर क्षेत्र को जानता-देखता है, वितिमिरतर क्षेत्र को जानता-देखता है, विशुद्धतर क्षेत्र को जानता-देखता है। ___ गौतमस्वामी-हे भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि कापोतलेश्या वाला नारक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा बहुतर, दूरतर, वितिमिरतर एवं विशुद्धतर क्षेत्र को जानता-देखता है ? भगवान् हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष एकदम समतल भ्रमिभाग से पर्वत पर आरूढ हो और आरूढ होकर अपने दोनों पांव ऊंचे करके सब दिशाओं और विदिशाओं में अवलोकन करे तो वह पुरुष भूतल पर स्थित और पर्वत पर અપેક્ષાએ અવધિ દ્વારા બધી દિશાઓ અને વિદિશાઓમાં અવલોકન કરતે કેટલા ક્ષેત્રને त-हेणे छ? श्री भगवान् ! 3 गौतम । मत२ क्षेत्रने त-हे छ, रत२ क्षेत्र -हेमे है, વિતિમિરતર ક્ષેત્રને જાણે-ખે છે વિશુદ્ધતર ક્ષેત્રને જાણે–દેખે છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન્! શા કારણથી એમ કહે છે કે, કાતિલેશ્યાવાળા નારક નીલલેશ્યાવાળા નારકની અપેક્ષાઓ, બહતર, દરના વિતિમિરતર, તેમજ વિશુદ્ધતર ક્ષેત્રને नए-हेणे छ? શ્રી ભગવાન્ હે ગૌતમ જેમ કોઈ પુરૂષ એકદમ સમતલ ભૂમિભાગથી પર્વત ઉપર આરૂઢ થાય, અને આરૂઢ થઈને પિતાના બન્ને પગ ઊંચા કરીને બધી દિશાઓ અને વિદિશાઓમાં અવકન કરે છે તે પુરૂષ ભૂતલ પર રહેલ અને પર્વત પર રહેલ પુરના
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy