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________________ प्रमैयवोधिनी टीका पदं १७ सू० १४ नैरयिकावधिज्ञेयक्षेत्रपरिमाणनिरूपणम् १६ क्षेत्रं पश्यति, वितिमिरतरकं क्षेत्र जानाति वितिमिरतरकं क्षेत्रं पश्यति, विशुद्धतरक क्षेत्र जानाति, विशुद्धतरकं क्षेत्रं पश्यति, तत् केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यते-नीललेश्यः खलु नैरयितः कृष्णलेश्यं नैरयिकं प्रणिधाय यावद् विशुद्धतर क्षेत्रं जानाति, विशुद्धतरक क्षेत्र पश्यति ? तत् यथानाम कश्चित् पुरुषो बहुसमरणीयाद् भूमिभागात् पर्वतमारुह्य सर्वतः समन्तात् सममिलोफत ततः खलु स पुरुषो धरणितलगतं पुरुप प्रणिधाय सतः समन्तात् समभिलोकमानः समभिलोकगानो बहुतरक क्षेत्र जानाति याबद विशुद्ध क्षेत्रं पश्यति, तत् जानता है, दूरतर क्षेत्र को देखता है (वितिमिरतरक खेत्तं जाणइ) निर्मलतर क्षेत्र को जानता है (चितिभिरतरगं खेत्तं पासइ) निर्मलतर क्षेत्र को देखता हैं (विसुद्धतरगं खेत्तं जाण, विसुद्धतरगं खेतं पालइ) विशुद्धतर क्षेत्र को जानता है, विशद्वतर क्षेत्र को देखता है (सेकेणडे णं भंते ! एवं उच्चह) किस हेतु से अगवन् ! ऐसा कहा जाता है कि (नीललेस्ले णं नेरहए कण्हलेस्सं नेरइयं पणिहाय जाच विसुद्धतरगं खेत्तं जाणा, विसुद्धतरगं खेतं पासह ?) नीललेश्ण शेला नारक कृष्णलेश्या बाले नारक की अपेक्षा यावत् विशुद्धतर क्षेत्र को जालता है, विशुद्धतर क्षेत्र को देखता है ? (ले जहानामए केइ पुरिसे) कुछ भी नाम बाला पुरुष (बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ) बहुत सम एवं रमणीय भूमिभाग से (पव्ययं दुरुहित्ता) पर्वत पर चढ कर (सव्वओ समंता समभिलोएन्जा) सब दिशा-विदिशाओं में अवलोकन करे (तए णं ले पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय) तब वह पुरुष भूतल पर रहे हुए पुरुष की अपेक्षा (लामो समन्ना.समभिलाए माणे २) सब तरफ देखता-देखता (बहतरगं खेतं जाणइ जाद विसुद्धतरगं खेतं पासइ) बहुतर क्षेत्र को जानता है, यावत् विशुद्धतर क्षेत्र को देखता है (से तेजटेणं गोयमा ! एवं बुच्चई) मिरतरगं खेत्तं जाणइ) नित२ क्षेत्रने तो छ (वितिमिरतरगं खेत्तं पासइ) निमगतर क्षेत्र मे छे (विसुद्धतरगं खेत्तं जाणइ, विसुद्धतरगं खेत्तं पासइ) विशुद्धत२ क्षेत्रणे छ, विशुद्धन२ क्षेत्रते हमे छ (से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ) ॥ उतुथी गवन् ! शव ४वय छ (नीललेस्सेणं नेरइए कण्हलेस्सं नेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरगं खेत्तं जाणइ विसुद्धतरगं खेत्तं पासई १) नासवेश्यावा ना२४ जुटेश्यावाणा ना२४ी अपेक्षा यावत् विशुद्धत२ क्षेत्रने गये थे, विशुद्धत२ क्षेत्रने हेथे छ ? (से जहा नामए केइ पुरिसे) ४४ ५] नामवाणी ५३५ (बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ) घ सम तेमन रमणीय भूमि माथी (पव्वयं दुरुहित्ता) पर्वत ५२ २ढीने (सव्वओ समंता समभिलोएज्जा) मधा शिवशायमा मन ४२ (तएणं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय) त्यारे ते ५३५ सूतब ५२ २७सा ५३पनी अपेक्षाये (सव्वओ समंता समभिलोएमाणे) मधी तर तi (बहुतरगं खेत्तं जाणइ जाव विसुद्धतरगं खेत्तं पासइ) ५॥ सपा
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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