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________________ . प्रमेयबोधिनी टीका पद १७ सू० १४ नैरयिकावधिज्ञेयक्षेत्रपरिमाणनिरूपणम् १८७ . छाया-कृष्णलेश्यः खलु भदन्त ! नैरयिकः कृष्णलेश्यं नैरयिर्क प्रणिधाय अवधिना सर्वतः समन्तात् समभिलोकमानः कियत क्षेत्रं जानाति, भियत्क्षेत्रं पश्यति ? गौतम ! नो बहुकं क्षेत्रं जानाति, नो बहुकं क्षेत्रं पश्यति, नो दूरं क्षेत्र जानाति, नो दूरं क्षेत्रं पश्यति, इत्वर मेव क्षेत्रं जानाति, इत्वरमेव क्षेत्रं पश्यति, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-कृष्णलेश्यः खलु नैरयिक स्तच्चैव यावद् इत्वरमेव क्षेत्रं पश्यति ? गौतम ! तद् यथा नाम कश्चित्पुरुपो बहुसमरणीये भूमिभागे स्थित्वा सर्वतः समन्ताम् समभिलोकेत, ततः खलु स पुरुषो धरणितलगतं पुरुषं नारकों का अवधिज्ञान 'शब्दार्थ-कण्हलेस्से णं भंते ! नेरइए' हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाला नारक' 'कण्हलेस्सं नेरयं, पणिहाए' कृष्णलेश्यावाले दूसरे वारक की अपेक्षा 'ओहिणा' अवधि के द्वारा 'सचओ' लव दिशाओं में 'समंता' सब विदिशाओं में 'समभिलोएमाणे' अवलोकन करता हुआ 'केवयं' कितने 'खेत्तं' क्षेत्र को 'जाणई' जानता है । 'केवइयं खेत्तं पालइ ?' कितने क्षेत्र को देखता है ? 'गोयमा ! णो बहुयं खेत्तं जाणइ' हे गौतम ! बहुत क्षेत्र को नहीं जानता ‘णो बहुयं खेत्तं पासई' बहुत क्षेत्र को नहीं देखता 'णो दूर खेत जाणइ' दूर क्षेत्र को नहीं जाणता 'णो दूरं खेत्तं पासई दर क्षेत्रको नहीं देखता 'इत्तरिय' थोडे 'खेत्तं' क्षेत्र को 'जाणइ' जानता है 'इत्तरियमेव खेत्तं पासइ' थोडे ही क्षेत्र को देखता है। . (से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-कण्हलेस्ले गं अंते ! नेरइए तं चेव) भगवन् ! किस हेतु ले ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या वाला नारक, ईत्यादि वही पूर्वोक्त 'जाया इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ?' यावत् अल्प ही क्षेत्र को देखता है ? (गोयमा !) गौतम ! (से) अथ (जहानामए केइ पुरिसे) कुछ भी नाम वाला નારકનું અવધિજ્ઞાન शहाथ-(कण्हलेस्सेण भंते !नेरइए) गवन् ! वेश्या ना२४ (कण्हलेस नेरइयं 'पणिहाए) वेश्यावा भी ना२४ी. अपेक्षा (ओहिणा) मधिना । (सवओ) wधा हिशायामा (समता) न्यारे॥२ (समभिलोएमाणे) Aq8न ४३॥ २डसा (केवइयं) ८८४ (खेत्त) क्षेत्रने (जाणइ) । छ (केवइयं खेत्तं पासइ) इस क्षेत्र हे छ ? (गोयमा! णो बहुयं खेत्तं जाणइ) ॐ गौतम | क्षेत्राने नथी तता (णो बहुयं खेत्तं 'पासइ) घरी क्षेत्रात नथी मत। (णो दूरं खेत्तं जाणइ) २ना क्षेत्रने ता नथी. (णो दूर खेत्तं पासइ) ₹२ना क्षेत्रात नथी हेयता (इत्तरिय) था। (खेत्तं) क्षेत्रने (जाणइ) तो छ । (इत्तरियमेव खेत्तं पसिइ) थोडा क्षेत्र हे छ. . (से केणढे णं भंते ! एवं बुच्चइ कण्हलेरसे णं भंते ! नेरइए तं चेव) सावन् ! शा तथा मेम उपाय छे ४ वेश्या ना२४ त्यात ते पूरित (जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ?) यावत् २८५१ क्षेत्र मे छे १ (गोयमा ।) 3 गौतम ! (से) मथ (जहा नामए फेई पुरिसे) 5 प नाभवागा. ५३५ (बहुसमरमणिज्जसि भूमिभागम्मि ठिच्चा) मानद
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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