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________________ प्रमेयोधिनी टीका पद १४ सू० २ क्रोधप्रकारविशेपनिरूपणम् रयन, निर्जरयन्ति, निर्जारयिष्यन्ति, अथोपर्युक्त संग्राहकगाथामाह- 'आतपतिट्ठियखेचं पहुच्च दाणुबंधि आसोगे । चिणचिण वधउदी वेदतह निज्जरा चेव' ॥१॥ आत्मप्रतिष्ठितं क्षेत्र प्रतीत्य अनन्तानुबन्धी आभोगः । चयोपचयवन्धोदीरणा वेदनास्तथा निर्जरा" चैव ॥१॥ स्पष्टार्थम् । ' इति पण्णवure भगवईए कसायपयं समत्तं' इति प्रज्ञापनायां भगवत्यां कपायपदं समाप्तम् ||१४|| सू० २|| ५७७ इतिश्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलित - ललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री - शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' - पदविभूपित - कोल्हापुर राजगुरु - बालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाल- प्रतिविरचितायां श्री प्रज्ञापनासूत्रस्य प्रमेयवोधिन्याख्यायां व्याख्यायां चतुर्दशं कषायपदं समाप्तम् ॥ १४ ॥ उपचय करेंगे, बन्धन किया, बन्धन करते हैं और बन्धन करेगे, उदीरणा की, उदीरणा करते हैं और उदीरणा करेगे, वेदन किया, वेदन करते हैं और वेदन करेंगे, निर्जरा की, निर्जरा करते हैं और निर्जरा करेंगे । अब उपर्युक्त विषयों का संग्रह करने वाली गाथा कहते हैं- आत्मप्रतिष्ठित क्षेत्र के आश्रय से, अनन्तानुबंधी, आभोग, चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा का यहां कथन किया गया है । गाथा का आशय स्पष्ट है । श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलाल प्रतिविरचित प्रज्ञापना सूत्र की प्रमेयबोधिनी व्याख्या में चौदहवां कषाय पद समाप्त ॥ १४॥ ઉપચય કરશે. અન્યન કર્યુ, ખધન કરે છે અને બન્ધન કરશે. ઉદીરણા કરી, ઉદીરણા કરે છે, અને ઉદીરણા કરશે. વેદન કર્યુ, વેદન કરે છે અને વેદન કરશે. નિર્જરા કરી, નિરા કરે છે અને નિરાશ કરશે હવે ઉપર્યુક્ત વિષયેાના સંગ્રહ કરનારી ગાથા કહે છેઃ आत्म प्रतिष्ठित, क्षेत्रना आश्रयथी, अनन्तानुम् धी, भालोग, श्रय, उपयय, मन्ध, ઉદીરણા, વેદના અને નિજ રાનુ અહી' કથન કરેલુ' છે. ગગાના આશય સ્પષ્ટ છે. સ્૦ ૨ ॥ શ્રી જૈનાચાય જૈનધમ ક્રિવાકર પૂજય શ્રી ઘાસીલાલ વ્રુતિ વિરચિત પ્રજ્ઞાપના સૂત્રની પ્રમેયખેાધિની વ્યાખ્યાનું ચૌદમુ કષાય પદ સમાસ. ॥ ૧૪ ૫ प्र० ७३
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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