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________________ .५६० प्रज्ञापनासूत्र वस्तुशरीरोपधिविशेषापेक्षयाऽवसेया, 'एवं माणेण वि, मायाए वि, लोभेण वि' एवम्क्रोधोक्तिरीत्या, मानेनापि, माययाऽपि, लोभेनापि क्षेत्रवास्तुशरीरोप धिमाश्रित्य, चतुर्विशति दण्डकपदयाच्यानामभिलापो वक्तव्यः, तदाह-'एवं एए वि चत्तारि दंडगा' एवम्उपर्युक्तरीत्या एतेऽपि पूर्वोक्ता श्चत्वारो दण्डका -क्षेत्रवास्तुशरीरोपधिचिपयका अब सेयाः, अथ सम्यग्दर्शनादि गुणविघातित्वेन क्रोधभेद गौतमः पृच्छति-'कइविहे गं मंते ! कोहे पण्णत्ते ?' हे भदन्त ! कतिविधः खलु क्रोधः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'चउब्धिहे कोहे पण्णत्ते' चतुर्विधः क्रोधः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा-अर्णताणुवंधि कोहे' तद्यथा-अनन्तानुबन्धि क्रोधः-सम्यक्वगुणविघातकोऽनन्तानुवन्धी क्रोधो भवति, अपच्चरखाणे कोहे' अप्रत्याख्यान:-देशविरतिगुणविघातकः क्रोधो भवति, पच्चरखाणावरणे कोहे' प्रत्या. ख्यानावरणः-सर्वविरतिगुणविघाती क्रोधो भवति, 'संजलणे कोहे' संज्वलन:-यथाख्यातचारित्रविघातकः क्रोधो भवति, 'एवं नेरइयाणं जाव देमाणिगणं' एवम्- उपर्युक्त क्रोधचतुष्टयोक्तिरीत्या नैरयिकाणां यावत् - असुरकुमारादि दशभवनपति पृथिवीकायिकाकेन्द्रिय इसी प्रकार मान, माया, और लोभ के विषय में वही सब समझना चाहिए जो क्रोध के संबंध में कहा है, अर्थात् मान आदि की उत्पत्ति भी क्षेत्र, वास्तु शरीर, और उपधि के कारण होती है और नारक , आदि चौबीसों दंडकों के जीवों के मान आदि की उत्पत्ति भी इन्हीं चार कारणों से होती है। गौतम स्वामी पुनः प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है? __भगशन्-हे गौतम ! क्रोध चार प्रकार का कहा गया है। उसके चार भेद. इस प्रकार हैं (१) अनन्तानुबंधी क्रोध जो कि सम्यक्त्व गुण का घातक होता है, (२) अप्रत्याख्यानी क्रोध, जो देशविरति का विघातक होता है, (३) प्रत्या. ख्यानावरण क्रोध, जो सर्वविरिति का प्रतिबन्धक होता है, और (४) संज्वलन એજ પ્રકારે માન, માયા અને લેભના વિષયમાં પણ એજ બધુ સમજી લેવું જોઈએ કે જે કોધના સમન્વેમાં કહેલ છે. અર્થાત્ માન આદિની ઉત્પત્તિ પણ ક્ષેત્ર, વાસ્તુ, શરીર અને ઉપધિના કારણે થાય છે અને નારક આદિ ચોવીસે દંડકોના જીના માન આદિની ઉત્પત્તિ પણ આજ ચાર કારણથી થાય છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી પુનઃ પ્રશ્ન કરે છે-હે ભગવન્! કોધ કેટલા પ્રકારને કહે છે? શ્રી ભગવા—ગૌતમ ! ફોધ ચાર પ્રકાર છે. તેના ચાર ભેદ આ પ્રકારે છે , “ (૧) અનન્તાનુબંધીકોધ–કે જે સમ્યક્ત્વ ગુણને પણ ઘાતક હોય છે. - (૨) અપ્રત્યાખ્યાની ક્રોધ-જે દેશ વિરતિને વિઘાતક હોય છે. (3) प्रत्याभ्यानाडोष-रे सवितिनो प्रतिम ५४ थाय छे. . (४) सनसनीप-२ यथाभ्यात यात्रिन ५-न नथी था तो
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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