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________________ प्रतापनास्त्रे लनक्रोधः, एवं नैरयिकाणां यावद् वैमानिकानाम्, एवं मानेन मायया लोभेन एतेऽपि चत्वारो दण्डकाः !! सू० १ ॥ 3. टीका - त्रयोदशे पदे सामान्येन गत्यादिलक्षण जीवपरिणामस्य प्रतिपादितत्वेन सामान न्यस्य च विशेषनिष्ठत्वात् तस्यापि विशेषतः क्वचित् कस्यचित् प्रतिपादनस्थवश्यकतया एकेन्द्रियाणामपि क्रोधादिकपायसद्भावात् चत्वारः कपायाः पुनर्भवमूलं सिञ्चन्ति इति दशवैफ़ालिकवचनात्-मुख्यतया वन्धकारणत्वाच्च प्रथमं विशेषतः कषायपरिणामं प्ररूपयितुमाह - 'कणं भंते ! कसाया पण्णत्ता' हे भदन्त ! कति खलु कपायाः प्रज्ञप्ता: ? भगवानाई - 'गोयमा !' हे गौतम ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता' चत्वारः कपायाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा है ? (गोमा ! चच्चिहे कोहे पण्णत्ते) हे गौतम ! चार प्रकार का क्रोध कहां है (तं जहा) वह इस प्रकार (अनंताणुबंधि कोहे) अनंन्तानुबंधी क्रोध (अपच्चकखाणे कोहे) अप्रत्याख्यानी क्रोध (पच्चक्खाणावरणे कोहे) प्रत्याख्यानावरण क्रोध (संजलणे को है) संज्वलन कोष ( एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं) इसी प्रकार नारकों यावत् वैमानिकों का क्रोध समझना (एवं माणेणं, मायाए, लोणं) इसी प्रकार मान, माया और लोभ से (एवि चत्तारि दंडगा) ये भी चार दंडक हैं टीकार्थ - तेरहवे' पद में सामान्य रूप से गति आदि जीव के परिणामों का प्रतिपादन किया गया है और सामान्य विशेषों में रहता है अतः विशेषों के प्रतिपादन की भी आवश्यकता रहती है । एकेन्द्रिय जीवों में भी क्रोध आदि कषाय विद्यमान रहते हैं, क्यों कि चारों कषाय पुनर्भव के सूल को सिञ्चन करते हैं इति दशबैकालिक के वचन प्रमाण से तथा प्रधान रूप से बन्ध का कारण होने से प्रथम विशेषतः कषायपरिणाम की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैंगौतम स्वामी प्रश्न करते हैं- हे भगवन् ! कषाय कितने कहें हैं ? चविहे पण्णत्ते) - गौतम । यार अारना शेष ह्या छे (तं जहा) ते या अठारे (अणंताणुबंधी कोहे) अनन्तासुधी शेध (अपच्चक्खाणे कोहे) भयंत्याच्यानी ोध ( पच्चक्खाणावरणे कोहे) प्रत्याच्यानावर डोध (संजलणे कोहे) संल्सन श्रेध (एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं) मेन अमरे नारी यावत् वैभानिठाना डोध सभा (एवं माणेणं, मायाएं, लोभेणं) सेन्ट प्रहारे मान, माया, अने बोलथी (एए वि चत्तारि दंडगा ) मा पशु यार उ छे ટીકા-તેરમા પદમાં સામાન્ય રૂપથી નાકાર્ત્તિ ગતિ આદિ વેાના પરિણામેાનુ . પ્રતિપાદન કરાયું છે અને સામાન્ય વિશેષમાં રહે છે. તેથી વિશેષેાના પ્રતિપાદનની પણ અવશ્યકતા રહે છે. એકેન્દ્રિય જીવમાં પણુ કોષ આદિ કષાય વિદ્યમાન હેય છે, કેમકે ચારે કષાયેા પુનવના મૂળને સિંચન કરે છે, એવાં દશવૈકાલિકના વચન પ્રમાણુથી, તથા પ્રધાન રૂપથી અન્ધનું કારણ હાવાથી પ્રથમ વિશેષતા, માય પરિણામની પ્રરૂપણા કરવાને માટે કહે છે શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે—હે ભગવન્! કષાય કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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