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________________ प्रज्ञापनासूत्रे ३४४ उष्णस्प ग्रहणं प्रतीत्य नियमात् चतुःस्पर्शानि गृह्णाति, तद्यथा - शीत स्पर्शानि गृह्णाति, शनि, स्निग्धस्पर्शानि, रूक्ष स्पर्शानि गृह्णाति यानि स्पर्शतः शीतानि गृह्णाति तानि किम् एकगुणशीतानि गृह्णाति यावद् अनन्तगुणशीतानि गृह्णाति ? गौतम ! एकगुणशीतान्यपि गृह्णाति यावद् अनन्तगुणशीतान्यपि गृह्णाति एवम् उष्ण स्निग्धरूक्षाणि यावत् अनन्तगुणान्यपि गृह्णाति यानि भदन्त । यावद् अनन्तगुणरूक्षाणि गृह्णाति तानि किं स्पर्धा - बालों को ग्रहण करता है (सव्वग्गहणं पडुच्च नियमा चउफासाई गेण्हति) सर्वग्रहण की अपेक्षा नियम से चार स्पर्श वालों को ग्रहण करता है (तं जहाateफासाई गेहति, उसिणफासाई, जिल्फासाई, लक्खफासाई गेण्हति) वह इस प्रकार - शीतस्पर्धा वालों को ग्रहण करता है, उष्ण स्पर्श वालों को, स्निग्ध स्पर्श वालों को, रुक्ष स्पर्श वालों को ग्रहण करता है (जाई फासतो सीता गिण्हति ताई किं एगगुणसीताई गेहति जाब अनंतगुगलीताई) स्पर्श से जिन शीत द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या एकगुण शीत द्रव्यों को ग्रहण करता है यावत् अनन्तगुण शीत द्रव्यों को ग्रहण करता (गोयमा ! एगगुणसीतापि गेण्हति जाव अनंत गुणसीताईपि गेण्हति ) हे गौतम ! एकगुण शीनों को भी ग्रहण करता है यावत् अनन्तगुण शीतों को भी ग्रहण करता है ( एवं उमिणणिलु खाई) इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श को (जाव अनंतगुणापि हिति) यावत् अनन्तगुण बालों को भी ग्रहण करता है । (जाई भंते ! जब अनंतगुणलुदखाई गेहति, ताई किं पुट्ठाई गेव्हति, अपुव्हति ?) हे भगवन् ! जिन यावत् अनन्तगुण रूक्ष द्रव्यों को ग्रहण करता गेण्हति) यावत् झा स्पर्शवाजाने श्रणु नथी ४२ता (सव्वग्गहणं पडुच्च नियमा च उफासाइ व्हति ) सर्व ग्रहणुनी अपेक्षा नित्रभथी यार स्पर्शवाणामने ग्रहयु ४रे छे तं जहा - सीयफासाई गेण्हति, उसिण फासाई गेण्हति णिद्ध फासाई, लुक्ख फासाइ गण्हति ) તે આ પ્રકારે શીત સ્પર્શીવાળાઓને ગ્રતુણુ કરે છે, ઉષ્ણુ સ્પર્શીવાળાઓને ગ્રતુણુ કરે છે, स्निग्ध स्पर्शवाणामाने यु मेरे छे, इक्ष स्पर्शवाणामाने श्रणु रे छे (जाई फासतो सीनाई गिण्हति ताई कि एगगुणसीताई गेण्हति जाब अनंतगुणसीताई गेण्डति १ ) સ્પર્શીથી જે શીત દ્રવ્યેાને હૅશુ કરે છે, શુ એકનુ શીત દ્રવ્યેાને ગ્રાણ કરે છે ચાવત્ अनन्त गुयु शीत द्रव्येति श्रषु रे ? ( गोयमा ! एगगुणसीताई पि गेहति जाव वर्णवगुणसीताइ पि गेहति १) हे गीतम् ! मे गुथु शीताने पर श्रद्ध१रे छे यावत् अनन्त गुप्यु शीताने ४२ छे ( एवं उसिण णिद्ध लुक्खाइ ) मे अरे, स्निग्ध भने रुक्ष स्पर्श पाजामाने ( जात्र अनंत गुणाई पि વાળાઓને પણ ગ્રહણુ કરે છે गिण्हति ) यावत् अनन्त गुथु (जाई भंते ! जाव अनंतगुणलुम्खाइ गेण्छति, ताइ किं गेव्हति ?) हे भगवन् ! ? यावत् अनन्त गुथु ३क्ष द्रव्याने पुट्ठाई गेहति, अपुट्ठाई ४रे छे, शु ते स्पृष्ट
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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