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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद ७ सू० १ नैरयिकादीनामुच्छ्वासनश्वास निरुपम त्रयस्त्रिंशतः पक्षाणां यावत् निःश्वसन्ति वा, सर्वार्थसिद्धदेवाः खलु भदन्त ! कियत्कालस्य यावत् निःश्वसन्ति वा ? गौतम ! अजघन्यानुत्कृप्टेन त्रयस्त्रिंशतः पक्षाणां यावत् निःश्वसन्ति वा, इति प्रज्ञापनायां सप्तमम् उच्छ्वासपदं समाप्तम् ॥०१॥ टीका-पूर्व प्राणिनासुपपातविरहादयः प्ररूपिताः, अथ नैरयिकादि भावेनोत्पन्नानां प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तानां यथायोग्यमुच्छ्वासनिश्वासक्रिया विरहाविरहकालपरिमाणं प्ररूपयितुमाह-'नेरइयाणं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! नैरयिका खलु कियत्कालस्य, पञ्चम्यर्थे तृतीयार्थे वा षष्ठी विधानात् कियतः कालात् , कियता कालेन वा, आनन्ति वा आइपूर्वकात् 'अन् - (गोयमा ! जहण्णेणं एकतीसाए पक्खाणं, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा) हे गौतम ! जघन्य इकतीस पक्षों में, उत्कृष्ट तेत्तीस पक्षों में यावत् निश्वास लेते हैं (सव्वट्ठसिद्धदेवाणं भते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ?) हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्धविमान के देव कितने काल में यावत् निश्वास लेते हैं ? (गोयमा ! अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा) हे गौतम ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस पक्षों में यावत् निश्वास लेते हैं (इइ पण्णवणाए सत्तमं ऊसासपयं समत्तं) इस प्रकार प्रज्ञापना में सातवां उच्छवास पद समाप्त सू० ॥ टीकार्थ-पहले प्राणियों के उपपात, विरह आदि की प्ररूपणा की गई अब जों प्राणि नारक आदि पर्याय में उत्पन्न हुए हैं, और प्राणापात्र पर्याप्ति से पर्याप्त हैं, वे कितने काल के वाद उच्छ्वास निश्वास ले ते हैं यह प्ररूपणा की जाती है. 'अन् प्राणने' धातु से आङ् उपसर्ग लगने पर 'आनन्ति' रूप बनता है और 'प्र' उपसर्ग अधिक लगाने पर 'प्राणन्ति रूप सिद्ध होता है। ‘कियत्कायावत् पास से छे ? (गोयमा ! जहण्णेणं एकतीसाए पक्खाण उक्कोसेण तेत्तीसाए पक्खाण जाव नीससंति वा) गीतम! धन्य त्रीस पक्षोमा अष्ट तीस पक्षोभा યાવત્ નિશ્વાસ લે છે (सव्वदृसिद्धदेवाणं भंते ! केवइयकालस्स जाव नीससंति वा ?) मापन् । साथ सिद्ध विमानना है पा simभा यावत् निश्वास से छे ? (गोयमा! अजहण्णमणुकोसेण तेत्तीसाए पक्खाण जाव नीससंति वा) गौतम ! २१४५न्य मनुष्कृष्ट तेवीस पक्षामा यावत् निश्वास से छे (इ इ पण्णवणाए सत्तमं उसासपर्य समत्तं) से प्रारे प्रज्ञापनामा સાતમું ઉચ્છવાસ પદ સમાસ છે ટીકાથ–પહેલા પ્રાણિયેના ઉપપાત, વિરહ આદિની પ્રરૂપણ કરાઈ છે, હવે જે પ્રાણી નારક આદિ પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થયા છે અને પ્રાણાપાન પર્યાપ્તિથી પર્યાપ્ત છે તેઓ કેટલા કાળ પછી ઉચ્છવાસ નિશ્વાસ લે છે, એ પ્રરૂપણ કરાય છે
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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