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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद १० सू. ५ द्विप्रदेशादिस्कन्धस्य चरमाचरमत्वनिरूपणम् १५७ स्कन्धोऽपि 'चरमौ चाचरमौ च' इति व्यपदिश्यते, 'सिय चरमे य अवत्ताए य ११ पट्प्रदेशिक: स्कन्धः स्यात्-कदाचित् 'चरमश्च अवक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते, तथा यदा पट्प्रदेशिकः स्कन्धो वक्ष्यमाणत्रिंशस्थापनारीत्या समश्रेण्या विश्रेण्या च व्यवस्थितेषु विष्वाकाशप्रदेशेषु अवगाहते तत्राये प्रदेशे द्वौ, द्वौ च समश्रेण्या व्यवस्थिते द्वितीये प्रदेशे वर्तेते, द्वौ तु विश्रेणिस्थे तृतीये प्रदेशे वर्तेते तदा द्विप्रदेशावगाढाश्चत्वारः परमाणवः समश्रेणिव्यवस्थित द्विप्रदेशावगाढ द्विप्रदेशिकस्कन्धवत् चरमः, द्वौ तु विश्रेणिस्थ प्रदेशावगाढौ केवलपरमाणुवदवक्तव्यः इति तत्समुदायात्मक पदप्रदेशिक स्कन्धोऽपि 'चरमश्वावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते 'सिय चरमे य अवत्तव्वयाइं च १२' षट्प्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् 'चरमश्वावक्तव्यौ च' इति व्यपदिश्यते तथाहि-यदा पट्प्रदेशिकः स्कन्धो वक्ष्यमाणैकत्रिंशस्थापनारीत्या३१ समश्रेण्या में रहा हुआ परमाणु भी अचरम है । यो दो अचरम 'अचरमौ' हुए। अतएव उन सब का समुदाय षट्प्रदेशी स्कंध भी 'चरमौ-अचरमौ' कहा जाता है। षट्प्रदेशी स्कंध कथंचित् 'चरम-अवक्तव्य' भी कहा जाता है, क्योंकि जब वह आगे कही जाने वाली तीसवीं स्थापना के अनुसार समश्रेणी और विश्रेणी में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में अवगाहन करता है और प्रथम प्रदेश में दो, समश्रेणी में स्थित द्वितीय प्रदेश में दो और विश्रेणी में स्थित तीसरे प्रदेश में दो परमाणु रहते हैं, तब दो प्रदेशों में अवगाढ चार परमाणु, समश्रेणी में अवस्थित एवं द्विप्रदेशावगाढ द्विप्रदेशी स्कंध के समान 'चरम, विश्रेणी में स्थित प्रदेश में अवगाढ दो केवल परमाणु के समान 'अवक्तव्य' कहलाते हैं। उनका समूह षट्प्रदेशी स्कंध भी 'चरम-अवक्तव्य' कहा जाता है। षप्रदेशी स्कंध कथंचित् 'चरम-अवक्तव्यो' भी कहा जाता है । वह इस प्रकार-जब कोई षटूप्रदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली एकतीसवीं स्थापना के શમા સ્થિત બે પરમાણુ અચરમ છે ત્રીજા પ્રદેશમાં રહેલ એક પરમાણુ પણ અચરમ છે सम में भयरम-अचरमौं थया. तेथी । तेमा मधाने। समुदाय षट्शी ४५ ५५ 'चरमौ-अचरमौ ४उपाय छे. पाशी २४५ ४थयित् 'चरम-अवक्तन्य ४३वाय छे, म न्यारे ते मागण કહેવાનારી ત્રીસમી સ્થાપનાના અનુસાર સમશ્રેણી અને વિશ્રેણીમાં સ્થિત ત્રણ આકાશ પ્રદેશમાં અવગાહન કરે છે અને પ્રથમ પ્રદેશમાં બે સમગ્રણીમા સ્થિત દ્વિતીય પ્રદેશમાં બે અને વિશ્રેણીમાં સ્થિત ત્રીજા પ્રદેશમાં બે પરમાણુ રહે છે, ત્યારે બે પ્રદેશોમાં અવગાઢ ચાર પરમાણુ સમશ્રેણીમાં અવસ્થિત તેમજ દ્વિદેશાવગાઢ ક્રિપ્રદેશી સ્કલ્પના સમાન રન બે વિશ્રેણીમાં રિત પ્રદેશમાં અવગાઢ બે કેવળ પરમાણુના સમાન मतव्य पाय थे. तेमना समूह षट् प्रदेशी २४५ ५ 'चरम अवक्तव्य' डिवाय छे. पटू प्रदेशी २४.४५थित् 'चरम-अवक्तव्यो, पण उपाय है. ते या प्रसार ल्यारे કોઈ પ્રદેશી સ્કન્ધ આગળ કહેવા નીચે એકત્રીસમી સ્થાપનાના અનુસાર સમશ્રેણી
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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