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________________ १५४ महापासू स्मिन्नपि आकाशप्रदेशे वर्तन्ते यदा द्विप्रदेशावगाढ द्विप्रदेश स्कन्धवच्चरमो भवति 'नो अचइमे २' पञ्चप्रदेशिक स्कन्धों नो अचरमो भवति, चरमरहितस्य केवलस्याचरमस्यासंभवात् प्रान्ताभावे मध्यस्य वक्तुमशक्यत्वात् 'सिय अवत्तव्यए ३' पञ्चमदेशिकः स्कन्धः स्यात्कदाचित् भवक्तव्यो भवति, तथाहि यदा खलु पद्मदेशिकः स्कन्धो वक्ष्यमाणपञ्चविंशस्थापना२५रीत्या एकस्मिन् आकाशप्रदेशेऽवगाहते तदा केवल परमाणुवच्चरमाचरम शब्दाभ्यां वक्तुमशक्यत्वादवक्तव्या भवति 'नो चरमाई ४' पट्प्रदेशिकः स्कन्धो नो 'चरमाणि' इति व्यपदिश्यते प्रागुक्तयुक्तेः, 'नो अचरमाई ५' तो 'अचरमाणि' इति वा व्यपदिश्यते 'नो अवत्तव्वयाई ६' नोवा 'अवक्तव्यानि ' इति व्यपदिश्यते किन्तु - 'सिय चरमेय अचरमे य ७ षट्प्रदेशिकः स्कन्धः स्यात् कदाचित्, 'चरमथ अचरमथ' इति व्यपदिश्यते, तथाहि यदा षट्प्रदेशिकः स्कन्धो वक्ष्यमाण पटूविंशस्थापना २६रीत्या पञ्चसु आकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेषु अवगाहते तत्र हौ परमाणु मध्यप्रदेशे वर्तेते, एकैकः शेषेषु तदा तेष होते हैं, तब वह द्विप्रदेशी स्कंध के समान 'चरम' कहलाना है। मगर छप्रदेशी स्कंध 'अचरम' नही कहा जा सकता, क्योंकि चरम के बिना केवल अचरम का होना संभव नहीं है, क्योंकि अन्त के विना मध्य नहीं हो सकता | पंचप्रदेशी स्कंध कथंचित् अवक्तव्य कहा जाता है, क्योंकि जब आगे कही जाने वाली पच्चीसवीं स्थापना के अनुसार एक ही आकाशप्रदेश में अवगाढ होता है, तब केवल परमाणु के समान चरम और अचरम शब्दों द्वारा कहने योग्य न होने से उसे 'अवक्तव्य' कहते हैं । मगर षट्टप्रदेशी स्कंध को 'चरमाणि' अथवा 'अचरमाणि' अथवा 'अवक्तव्यानि' नहीं कह सकते । वह कथंचित् 'चरमअचरम' कहा जा सकता है, क्योंकि जब षट्प्रदेशी स्कंध आगे बतलाई हुई छव्वीसवीं स्थापना के अनुसार समश्रेणी में स्थित पांच आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है, और उनमें से दो प्रदेश मध्य में होते हैं और एक-एक शेष એક આકાશ પ્રદેશમાં અને ત્રણ પરમાણુ ખીજા આકાશ પ્રદેશમા સ્થિત થાય છે, ત્યારે ते द्विद्वेशी स्न्धना समान 'चरम' हवाय छे, यागु छ प्रदेशी सुन्ध 'अचरम' नथी डी શકા કેમકે ચરમના વિના કેવળ અચરમનું ડેવુ' સંભવ નથી, કેમકે અન્તના વિના મધ્યમ નથી થઈ શકતા પ’ચપ્રદેશી સ્કન્ધ કથાચિત્ અવક્તવ્ય કહેવાય છે કેમકે જ્યારે આગળ કહેવાશે તે પચ્ચીસમી સ્થાપનાના અનુસાર એક જ આકાશ પ્રદેશમાં અવગાઢ થાય છે, ત્યારે કેવળ પરમાણુના સમાન ચરમ અને અચરમ શબ્દો દ્વારા કહેવા ચેગ્ય होवाथी तेने “अवक्तव्य' हे पशु षट्प्रदेशी सुन्धने 'चरमाणि' अथवा 'अचरमाणि' भ्मथवा 'अवक्तव्यानि' नथी म्ही शांता ते स्थथित 'चरम अचरम' ही शाय छे, કેમકે જ્યારે ષટ્ પ્રદેશી સ્કન્ધ આગળ ખતાવવામાં આવનારી છવીસમી સ્થાપનાના અનુસાર સમશ્રેણીમાં સ્થિત પાચ આકાશ પ્રદેશમા અવગાઢ થાય છે, અને તેએમાથી એ પ્રદેશ
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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