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________________ ३५० प्रज्ञापना द्विप्रदेशावगाढ द्विप्रदेशिकस्कन्धवच्चरमः द्वौ चाधस्तनौ परमाणू चरम इति ते चत्वारश्चरमौ इति, एकश्च केवल परमाणूवच्चरमाचरमशब्दाभ्यामवक्तव्यो भवति, इति तत्समुदायात्मकः पञ्चप्रदेशिक स्कन्धोऽपि 'चरमौ चावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते, 'नो चरमाई य अवत्तव्ययाई य १४' पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धो नो 'चरमाणि च अवक्तव्यानि च' इति व्यपदिश्यते, प्रागुक्तयुक्तेः, 'नो अचरमे य अवत्तव्यए य १५' नो 'अचरमश्चावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते, प्रागुक्तयुक्तेरेव, 'नो अचरमे य अवत्तव्ययाई य १६ नो 'अचरमश्चावक्तव्यानि च इति व्यपदिश्यते, 'नो अचरमाई य अवत्तव्यए य १७ नो अचरमाणि च अवक्तव्यश्च' इति वा व्यपदिश्यते, 'नो अचरमाई य अवत्तव्बयाई य १८' नो वा 'अचरमाणि च अवक्तव्यानि च इति व्यपदिश्यते, 'नो चरमे य अचरमे य अवत्तव्यए य १९' नो 'चरमश्वाचरमश्रावक्तव्यश्च' इति वा व्यपदिश्यते, 'नो चरमे य अचरमे य अवत्तव्ययाइं य २०' नो 'चरमधाचरमश्वावक्तव्यानि च' इति वा व्यपदिश्यते, 'नो चरमे य अचरमाइं य अवत्तव्यए य २१' नो 'चरमश्चावरमाणिचावक्तव्यश्च' इति वा व्यपदिश्यते, 'नो चरमे य अचरमाइं य अवत्तव्बयाई य २२' नो वा 'चरमश्चाचरमाणि चावक्तव्यानि च, इति व्यपदिश्यते, किन्तु-'सिय चरमाई स्कंध के समान 'चरम और नीचे के दो परमाणु भी चरम, इस प्रकार चार 'चरमौ' और एक परमाणु, अकेले परमाणु के समान अवक्तव्य होने से समग्र पंचप्रदेशी स्कंध 'चरमो-अवक्तव्य' कहलाता है। पंचप्रदेशी स्कंध 'चरमाणि-अवक्तव्यानि' नहीं कहा जाता, इसका कारण पूर्ववत् समझना चाहिए। वह 'अचरम-अवक्तव्य' भी नहीं कहलाता, इसका कारण भी पूर्ववतू समझना चाहिए। उसे 'अचरम-अवक्तव्यानि' भी नहीं कहते, 'अचरमाणि-अवक्तव्य' भी नहीं कह सकते, 'अचरमाणि-अवक्तव्यानि' भीनही कहा जा सकता, 'चरम-अचरम-अवक्तव्य' भी नहीं कहते, 'चरमअचरम-अवक्तव्यानि' भी नहीं कह सकते, 'चरस-अचरमाणि-अवक्तव्य भी नहीं कहा जा सकता, 'चरम-अचरमाणि-अवक्तव्यानि' भी नहीं कह विप्रशावाद विदेशी २४न्धन समान 'चरम' सने नीयन में ५२भाव पर चरम थे ४१३ यार 'चरमौ' भने ४ ५२भाशु, मेसा ५२मानी समान अवतव्य हावाथी समय पय अशी २४५ 'चरमौ अवक्तव्य वाय छे. पय प्रदेशी २४५ 'चरमाणि-अवक्तव्यानि' नथी पातो, सेतु १२ प पूर्ववत सभ से ले. ते 'अचरम-अवक्तव्य' . ५ नथी पाता, मेनु १२१] ५ पूर्ववत् समलन .'अचरम-अवक्तव्यानि' ५ नथी , 'अचरमाणि-अवक्तव्य' ५ नथी ४डी हातो. य२म अय२म अवतव्य ५९] नयी ४डपाते। 'चरम-अचरम अवक्तव्यानि' ५ नथी ही शत। 'चरम 'अचरमाणि-अवक्तव्य' ५५ नथी वाता २२म भयरम, मतव्य पार नथी पात 'चरम अचरमाणि-अवतव्यानि; पप
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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