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________________ प्रभापनासूत्रे माणि' इति व्यपदिश्यते, 'नो अबत्तव्ययाई ६' नो वा 'अवक्तव्यानि' इति व्यपदिश्यते, किन्तु-'सिय चरमे य अचरमे य ७' पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः, स्यात्-कदाचित् , 'चरमश्व अचरमश्च' इति व्यपदिश्यते, तथाहि यदा पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धो वक्ष्यमाणपञ्चदशस्थापना१५ रीत्या पञ्चसु आकाशप्रदेशेषु अवगाहते तदा चरमाणां चतुणा परमाणुनामेकसम्बन्धिपरिणा. मत्वादेकवर्णगन्धरसस्पर्शत्वाच्चैकत्वव्यपदेशे चरम इति व्यपदेशः, मध्यमस्तु परमाणु मध्यवर्तित्वादचरम इति व्यपदिश्यते इति तदुभयात्मकस्य पञ्चप्रदेशिकस्कन्धस्यापि 'चर. मश्चाचरमश्च' इति व्यपदेशो भवति 'नो चरमे य अचरमाइं य ८' पश्चप्रदेशिकः स्कन्धो नो 'चरमश्च अचरमाणि च' इति व्यपदिश्यते प्रागुक्तयुक्तेः, किन्तु 'सिय चरमाइं य अचरमे य ९' पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् 'चरमौ च अचरमञ्च' इति व्यपदिश्यते तथाहि यदा किल पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धो वक्ष्यमाणषोडशस्थापना१६रीत्या समश्रेण्या व्यवस्थितेपु त्रिषु आकाशप्रदेशेषु अवगाहते तत्र द्वौ परमाण आये श्राकाशप्रदेशे, द्वौ चान। आकाशप्रदेशे, एकश्च 'अचरमाणि' भी नहीं कह सकते, 'अवक्तव्यानि' भी नहीं कह सकते, मगर कथंचित 'चरस-अचरम' कहा जा सकता है, क्यों कि जब कोई पंचप्रदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली पन्द्रहवी स्थापना के अनुसार पांच आकाशप्रदेशों में अवगाहन करके रहता है, तब अन्त के चार परमाणु एकसम्बद्ध परिणामवाले होने के कारण और एक वर्ण, गन्ध, रस तथा दो स्पर्शवाले होने के कारण एक कहलाते है, अतः उन्हें 'चरम' कहा जाता है, मगर बीच का परमाणु मध्यवर्ती होने के कारण 'अचरम' कहा जाता है । इस प्रकार उभयरूप पंचप्रदेशी स्कंध भी 'चरम-अचरस' कहलाता है। पंचप्रदेशी स्कंध 'चरम-अचरमाणि' नहीं कहा जा सकता, इस संबंध में युक्ति पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। उसे 'कथंचित् चरमो-अचरम' कह सकते हैं, क्यों कि जब कोई पंचप्रदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली सोलहवीं, स्थापना के अनुसार समश्रेणी में स्थित तीन 'अचरमाणि' ५Y नयी ४ी शतु, मेनु र पूर्ववत् सभा २७. तर 'अवक्तव्यानि' ५ नयी ४ी शतु, ५५ ४५ यित् 'चरम-अचरम, ही शय छ, કેમકે જ્યારે કઈ પચ પ્રદેશી સ્કન્ધ આગળ કહેવાશે તે પંદરમી સ્થાપનાના અનુસાર પાચ આકાશ પ્રદેશોમાં અવગાહન કરીને રહે છે. ત્યારે અન્તના ચાર પરમાણુ એક સાદ્ધ પરિણામવાળા હોવાના કારણે અને એક વર્ણ ગંધ રસ–સ્પર્શવાળા हुवान क्षणे मे ४वाय छ, यी ४ ते 'चरम' वाय छ, पर क्या ५२. भा मध्यवती पाने ४२ 'अचरम' ४उवाय छ, से मारे सय ३५ ५न्य प्रशी २४न्य पशु 'चरम-अचरम' ४डेवाय छे. पथ प्रदेश २४न्ध' 'चरम-अचरमाणि નથી કહેવાતા. આ સંબંધમાં યુક્તિ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈએ. તેને ४थयित् 'चरमो-अचरम' ४डी शय छ, म न्यारे ५न्य प्रशा २४न्ध मागण કહેવાશે તે સેળમી સ્થાપનાના અનુસાર સમશ્રેણીમા સ્થિત ત્રણ આકાશ પ્રદેશમાં અવ
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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