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________________ ११९ प्रमेयवोधिनी टीका पद १० सू० ४ परमाण्वादि चरमाचरमनिरूपणम् अपेक्षणीयस्याविवक्षितत्वेनाभावात् , नापि सांशो वर्तते परमाणुयेन अंशापेक्षया चरमत्वं संभाव्येत, तस्य निरवयवत्वात् , अतएव परमाणुपुद्गलो न चरमो, नाप्यचरमो भवति तस्य निरवयवत्वेन मध्यमत्वासंभवात् , किन्तु नियमात-नियमतः अवक्तव्यो भवति परमाणुपुदगलः, चरमाचरमव्यपदेशकारणाभावेन चरमशब्देन अचरमशब्देन च व्यपदेष्टुमशक्यत्वात् , वक्त योग्यं वक्तव्यं यद्धि चरमशब्देन अचरमशब्देन वा स्वस्वनिमित्तरहितत्वेन वक्तुमशक्य तद् अवक्तव्यमित्युच्यते इति भावः स्थापना १ प्रथमा वक्ष्यते किन्तु शेषास्तु भङ्गा प्रतिषेद्धव्याः, परमाणौ तेपामसभवात् , तथा च वक्ष्यते-'परमाणुंमि य तइयो' परमाणौ च तृतीयो भङ्गो भवति, तृतीयश्च भङ्गः-अवक्तव्यरूपो वर्तते, शेषस्तु परमाणोः निरवयवत्वेन प्रतिषेच्याः इत्याशयः ॥ सू० ४ ॥ ___मूलम्-दुपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा, गोयमा! दुपएसिए खंधे सिय चरमे नो अचरमे सिय अवत्तव्वए, सेसा भंगा पडिसेहेयव्वा! तिपएसिए णं भंते! खंधे पुच्छा, गोयमा! तिपएसिए खंधे सिय चरमे, है, जिससे कि उसके अंशों की अपेक्षा चरमत्व की संभावना की जा सके। परमाणु तो निरंश-निरवयव है । अतएव परमाणु अचरम भी नहीं है, क्यों कि निरवयव होने से उसका मध्यभाग नहीं होता । परमाणु नियम से अवक्तव्य होता है, क्यों कि उसमें चरम अथवा अचरम कहने का कोई कारण नहीं है, अतः उसे न चरम कहा जा सकता है न अचरम कहा जा सकता है। जो चरम या अचरम शब्द से वक्तव्य-कहने योग्य-न हो, वह अवक्तव्य हैं। तब परमाणु नियम से अवक्तव्य भ ग में ही परिगणित होता है तो शेष पच्चीस भंग का निषेध समझलेना चाहिए, क्यों कि परमाणु में वे भंग संभव नहीं हैं। कहा भी है-'परमाणुमि य तहओ' अर्थात् परमाणु में तीसरा भग अर्थातू अवक्तव्य भंग ही होता है ।सू० ४॥ સાંશ (અનેક અશોવાળા) પણ છે નહિ, કે જેનાથી તેને અશેની અપેક્ષાએ ચમત્વની અપેક્ષાએ ચમત્વની સંભાવના કરી શકાય. પરમાણુ તે નિર શ–નિરવયવ છે. તેથી જ પરમાણુ અચરમ પણ નથી, કેમકે નિરવયવ હોવાથી તેને મધ્યભાગ હેત નથી. પરમાણુ નિયમથી અવક્તવ્ય હોય છે, કેમકે એમાં ચરમ અથવા અચરમ કહેવાનું કોઈ કારણ નથી, તેથી તેને નથી ચરમ કહી શકતા કે નથી અચરમ કહી શકતા. જે ચરમ અને અચરમ શબ્દથી કહેવા યોગ્ય ન હોય તે અવક્તવ્ય છે. જ્યારે પરમાણુ નિયમથી અવક્તવ્ય ભંગમાં જ પરિગતિ થાય છે તે શેષ પચીસ ભંગેનો નિષેધ સમજી લેવો लेध्ये, म ५२भाभा ते लगनो समय नथी. ह्यु ५५ छ,-परमाणु मि य तइओ અર્થાત પરમાણુમાં પણ ત્રીજો ભંગ અર્થાત્ અવક્તવ્ય ભંગ જ થાય છે. સૂ૦ ૪
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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