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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.९४ लवणसमुद्रस्य संस्थाननिरूपणम् ६७७ 'गंगा सिंधु रत्तारत्तवईसु सलिलासु देवया महिडियाओ जाव पलियोवमट्टिईया परिवसंति' गङ्गासिन्धु रत्तारक्तवतीपु सलिलासु प्रतिष्ठितासु देवता महद्धिका महाद्युतिकाः महासौख्याः महाभागाः पल्योपमस्थितिका परिवसंति । 'तेसिणं पणिहाए समुहे जाव नो चेव णं एगोदगं करेइ' तासां प्रणिधया प्रभावतः दादिकों की उत्पत्ति यथा योग्य इन्हीं कालों में होती है प्रकृति भद्रक मनुष्यों की उत्पत्ति होने की जो बात कही गई है वह सुषम दुःषमादि आरकों को लेकर कही गई है दुष्पम दुष्षम आदि कालों में जो लवणसमुद्र जम्बूदीप को पीडित आदि नहीं करता है वह भरतवैतादय आदि के अधिपति देवताओं के प्रभाव से नहीं करता है-तथा क्षुल्लहिमवत् और शिखरी वर्षधर पर्वत इन दो पर देवता महर्दिक आदि विशेषणों वाले रहते हैं इसलिये उनके प्रभाव से लवणसमुद्र जम्बू. द्वीप को दुःखित नहीं करता है तथा हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्य प्रकृति भद्रक यावत् विनीत होते हैं इसलिये उनके प्रभाव से जम्बूद्वीप को लवणसमुद्र दुःखित नहीं करता है इत्यादि कारणों का कथन जैसा कि अन्य सिद्धान्त अन्धों में किया है अब उसे ही यहां प्रकट किया जाता है 'गंगासिंधु रत्तारत्तवासु सलिलामु देवया महडियाओ जाव पलिओवमहिइया परिवसंति' गंगा, सिन्धु, रक्ता रक्तवती, इन 'महानदियों में जो अधिष्ठायक देव रहते हैं वे महर्द्धिक आदि विशेषणों वाले होते हैं यावत् पल्योपम की स्थिति वाले होते हैं सो 'तेसि णं पणिहाए लवणसमुद्दे जाव णो चेव णं एगोदकं करेइ' उनके प्रभाव 'વામાં આવેલ છે. દુપ્પમ દુષમ વિગેરે કાળમાં જે લવણ સમુદ્ર જંબુદ્વીપને પીડિત વિગેરે કરતું નથી. તે ભરત વૈતાઢય વિગેરેના અધિપતિ દેવોના પ્રભાવથી તેમ કરતું નથી. તથા સુલ હિમવતું અને શિખરિ વર્ષધર પર્વત એ . બનેની ઉપર મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણવાળા દેવો રહે છે. તેઓના પ્રભાવથી લવણું સમુંદ્ર જંબુદ્વિીપને દુઃખી કરતું નથી. તથા હૈમવત અને હૈરણ્યવતના મનુષ્ય પ્રકૃતિક યાવત્ વિનીત હોય છે. તેથી તેમના પ્રભાવથી જમ્બુદ્વીપને લવણ સમુદ્ર દુઃખી કરતો નથી. વિગેરે કારણોનું કથન જેમ અન્ય સિદ્ધાંત ગ્રંથમાં કરવામાં આવેલ છે. તે જ કારણને હવે અહિંયાં પ્રગટ કરવામાં माये छ.-'गंगा सिंधुरत्तारत्तवइसु सलिलासु देवयामहड्ढियाओ जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति' 1 सिधु, २४ता, २४तवती, २ नहीमामा तना अधि ઠાયક-નિયામક જે દેવ રહે છે. તેઓ મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણવાળા હોય ' छे. तेथी 'तेसिणं पणिहाए, लवणसमुद्दे जाव णो चेव णं एगोदगं करेइ' ते मा.
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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