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________________ प्रय घोतिका टीका प्र.३ उ.३ . ८८ सुस्याहा गौतमद्रीपनिरूपणम् ५९७ खल्वत्र देवशयनीयं प्रज्ञप्तम् । 'वण्ण भो' तस्य वर्णक उपरि अष्टाष्टमङ्गलकादिकं च तच्च देवशयनीयं नालिजनवर्तिकोभयत उपधानकम् मध्ये तत गभीरम् गङ्गापुलिनवालुकोबालसालिसयम् उपचितक्षौमदुकूलपट्टप्रतिच्छादनम् सुविरचितरजतत्राणरक्तांशुकसंवृतम् सुरम्यम् आदर्शस्त नवनीतनूलस्पर्शवन्मृदुकम् । ‘से केणटेणं भंते ! एवं चुच्चई' गोयमदीवे णं दीवे ? तत्थ २ तहिं वहई उप्पलाई जाव गोयमप्पभाई" तत्केनार्थेन भदन्त ! गौतमद्वीपः २ इत्येवमुच्यते ? भगवानाहगौतमद्वीपे खलु तत्र २ देशे-प्रदेशे चोत्पल-पद्म-कुमुद-पुण्डरीक महापुण्डरीक शत-सहस्रपत्राणि यानि तानि सर्वाणि गौतमवर्णानि-गौतमाकाराणि तत्तद्योगात् -बसति च तत्र महर्द्धिक महासौख्यक महाधुतिक महावल महानुभावः पल्योपमदेवसणिज्जे पण्णत्ते' इस मणिपीठिका के ऊपर एक देव शय्या है . 'वण्णओ' इसका वर्णन जैसा पीछे 'णाणामणिमया पडिरूवा' आदि पदों द्वारा किया गया है वैसा ही यहां पर भी कर लेना चाहिये 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ गोयमदीवेणं दीवे हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि यह गौतम द्वीप है ? अर्थात् इस द्वीप का नाम गौतम दीप ऐसा किस कारण से हुआ है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'तत्थ २ तहिं यहहिं उप्पलाइं जाव गोमयप्पभाई से एएणटेणं गोयमा ! णिच्चे' हे गौतम ! उस गौतमद्वीप में जो छोटी बडी वापिकाएं आदि जल प्रदेश है उनमें जो उत्पल पद्म कुमुद यावत् लक्षपत्रों वाले पुष्प आदि हैं उन सब की प्रभा गोमेद रत्न जैसी है इस कारण से वहां पर महर्दिक आदि विशेषणों वाली एवं एक पल्यकी स्थिति वाला गौतम देव रहता है इस कारण इस उवरि एन्थ णं देवसयणिज्जे पण्णत्ते' या मालिनी ६५२ मे शय्या छ. तेनु पर्जुन २ प्रमाणे 'णाणामणिमया पडिरूवा' विगैरे ५३ वा ४२वामा मावेश छ. शेक प्रमाणे महीया ५ ४ मे. 'से केणटणं भंते ! एवं पुच्चइ गोयमदीवेणं दीवे' लगवन् ! मा५ मे ॥ ४॥२४थी ४ छ। કે આ ગૌતમ દ્વિીપ છે. અર્થાત્ આ દ્વીપનું નામ ગૌતમ દ્વીપ એવું શા २४थी थयेत छ ? - प्रशन उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'तत्थ तत्थ तहिं बहूहिँ उनलाई जाव गोमयापभाई से एएणठे गं गोयमा जाव णिच्चे है गौतम ! એ ગૌતમદ્વીપમાં જે નાની મોટી વાવ વિગેરે જલ પ્રદેશ છે, તેમાં જે ઉપલે, પદ્મ, કુમુદ યાવત્ લક્ષપવાળા પુષ્પ વિગેરે છે. તે બધાની પ્રભા ગમેદ રત્નના જેવી છે. તે કારણથી તથા ત્યાં મહદ્ધિક આદિ વિશેષણવાળા અને એક પત્યની સ્થિતિવાળા ગૌતમ દેવ રહે છે. તે કારણથી આ દ્વિીપનું
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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