SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू. ८१ लवणसमुद्रवर्णनम् — अशीते द्वेशते पंच नवतिसहस्राणि च । .. क्रोशश्चान्तरं सागरस्य द्वाराणां च विज्ञेयम् ॥१॥ इति छाया जाव अंबाधाए अंतरे पन्नत्ते' यावदवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् इत्थं ज्ञेयम् । इति : लवणस्स णं पएसा धायइसंडं दीवं पुट्ठा तहेव जहा जंवूदीवे धायइसंडे वि सोच्चेव गमों' अथ लवणसमुद्रस्य ये प्रदेशा धातकीखण्डं स्पृष्टाः ते कि घातकी खण्डस्य, उत लवणस्य भवेयुः इति प्रश्ने ? तथैव धातकी खण्डस्य ये - केचन प्रदेशाः लवणं स्पृष्टवन्तस्ते धातक्या एव यथाऽभवन् न लवणस्य, यथा • च-जंबूद्वीपप्रदेशाः लवणं स्पृष्टाः जम्ब्या एव न लवणस्य, तथैव स एव • गमो न्याय्यः लोकव्यवहारात् । 'लवणे णं भंते समुझे जीवा उदाइत्ता सोचेव - 'जाव अबाधाए अंतरे पण्णत्ते' इस प्रकार से यह द्वारों का आपस का अन्तर अवाधा को लेकर कहा गया है 'लवणस्सणं 'पएसा धायइसंड दीवं पुट्ठा' हे भदन्त ! लवण समुद्र के जो 'प्रदेश धातकी खण्ड को स्पृष्ट किये हुए हैं वे धातकी खण्ड के होने चाहिए या लवणसमुद्र के होने चाहिये तात्पर्य यही है कि लवणसमुद्र के जो प्रदेश धातकी खण्ड को छुए हुए हैं वे धातकीखण्ड के कहलावेगें या लवणसमुद्र के कहलावेगें ? उसी तरह जो धातकी खण्ड के प्रदेश लवणसमुद्र को छुए हुए हैं वे क्या धातकी खण्ड के कहलावेंगे या लवण समुद्र के कहलावेगे ? तो इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तहेव जहा जंबूदीवे धायइ संडे वि सो चेव गमो' हे गौतम ! जैसा कथन जंबूद्वीप और लवण समुद्र के छुए हुए प्रदेशों के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही कथन यहां पर भी जानना चाहिये अर्थात् जिस प्रकार से लवणसमुद्र को स्पृष्ट किए हुए जंबू ''जाच अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' मा शत २ नाशनु ५२२५२नु मत२ ममाधान न ४ छ. 'लवणस्स णं पएसा धायइसंडं दीवं पुढा' लगवन् ! લવણસમુદ્રના જે પ્રદેશે ધાતકીખંડને સ્પર્શેલા છે, તે ધાતકીખંડના છે કે લવણસમુદ્રના છે ? આ કથનનું તાત્પર્ય એ જ છે કે-લવણસમુદ્રના જે પ્રદેશ - ધાતકી ખંડને સ્પર્શેલા છે તે ધાતકીખંડના જ કહેવાશે કે લવણસમુદ્રના કહેવિશે? એજ રીતે ધાતકીખંડના જે પ્રદેશે લવણસમુદ્રને સ્પર્શેલા છે, તે શું ધાતકી ખંડના કહેવાશે ? કે લવણસમુદ્રના કહેવાશે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छ -'गोयमा ! तहेव जहा जंबुदीवे धायइसंडे वि सोचेव गमो' गौतम ! જે પ્રમાણેનું કથન જંબુદ્વીપ અને લવણસમુદ્રને સ્પર્શ કરેલા પ્રદેશના “સંબધમાં કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહીંયા પણ સમજવું
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy