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________________ प्रमेयग्रोतिका टोका प्र.३ उ.३ १.७५ निलवंतादिहृदनिरूपणम् ४३९. एवम् उत्तरस्यां दिशायामपि ज्ञातव्यम् 'नवरं पउमाणं भाणियबो' नवरं पद्मानां भणितव्यम् विजयदेव प्रकरणे भद्रासनानां संख्या कथिता किन्त्वत्र पद्माना संख्या वक्तव्या-एतदेवोभयो लक्षण्यं प्रकरणयोः इति । तदेवं मूलपद्मस्य . त्रयः पद्मपरिवेषा अभूवन् । अन्येऽपि त्रयः परिवेषा विद्यन्ते तानाह- से णं पउमे' तत्खलु पद्म 'अन्नेहिं तिर्हि पउमवरपरिक्खेवेहि-अन्यैरनन्तरोक्त परिक्षेपत्रिक व्यतिरिक्तैः त्रिभिः पद्मपरिवेषैः 'सव्वओ समंता संपरिक्खत्ते'सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः संपरिक्षिप्त परिवेष्टितम् 'तं जहा' तयथा'अभितरेणं' आभ्यन्तरेण 'मज्ज्ञिमएण' मध्यमेन 'वाहरिएणं-वाद्येन च 'अभि तरएणं पउमपरिक्खेवे' आभ्यन्तरे प्रथमे खलु पद्मपरिक्षेपे सर्व संख्यया'बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' द्वात्रिंशत्पद्मशतसहस्राणि द्वात्रिंशल्लहै । और पश्चिम दिशा में भी ४ हजार पद्म है। विजय देव के प्रकरण में जितनी संख्या भद्रासनों की कही गई है उतनी ही संख्या 'यहां पद्मासनों की-पद्म रूप आसनों की-कह लेनी चाहिये, यस यही यहां विशेषता है। इस तरह यह मूल पद्म का यह पद्म परिवार तीन प्रकार का कहा है। इसके अतिरिक्त और भीतीन रूप का जो पद्म परिवार है वह इस प्रकार से है 'सेणं पउमे अन्नेहिं तिहिं पउमवर परिक्खेवेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' यही बात इस सूत्र द्वारा प्रकट की गई है-इन में से एक पद्मपरिवार-'अभितरेणं' बीच में है दूसरा पद्म परिवार 'मज्झिमएणं' मध्य में है और तीसरा पदम 'याहिरएणं' बाहिर में है यह पद्म परिवार परिधि के रूप में हैं। 'अभितरएणं पउमपरिक्खेवे यत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' आभ्यन्तर परिधि में ३२ लाख कमल हैं । 'मज्झिमएणं पउमपरिक्खेवे૪ ચાર હજાર પડ્યો છે. અને પશ્ચિમ દિશામાં ૪ ચાર હજાર પદ્મો છે. વિજય દેવના પ્રકરણમાં ભદ્રાસનની જેટલી સંખ્યા કહી છે, એટલી જ સંખ્યા - અહીયા પણ પાસની છે. અર્થાત પદ્મ રૂપ આસાની છે તેમ સમજી લેવું. એજ અહીં વિશેષતા છે. એ રીતે આ મૂલ પદુમને આ પદુમ પરિ. વાર ત્રણ પ્રકારે કહેલ છે. તે સિવાય બીજા પણ ત્રણ પ્રકારને જે પદ્મ પરિ. पा२ छ ते मा प्रभारी छ.-'सेणं पउमे अन्नेहि तीहि पउमवरपरिक्खेवेहि सवओ समंता संपरिक्खित्ते' ५२ ४ामा मावस बात मा सूत्रांश बा। सूत्रधारे प्रगट ४२ छे. तमाथी से पद्मपरिवार 'अभितरेणं' क्यमा छ. मी पदमपरिवार 'मज्झिमएणं' मध्यमा छ, मन त्रीले पदमपरिवार 'बाहिरए, महार छे. या पद्मपरिवार परिधि३ छ. 'अभिंतरएणं पउम परिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' माझ्यन्तर परिधिमा ३२ मत्रीस
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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