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________________ जीवामिगमसूत्र पुस्तकरत्नमुपनयन्ति-देवायाऽर्पयतीत्यर्थः 'तएणं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेण्डंति'-तत आनीतं पुस्तकमुत्तमं देवो गृह्णाति, 'गेण्हेत्ता पोत्थयायणं मुयति' गृहीत्वा पुस्तकरत्नं स्वोत्सङ्गे सुश्चति, स्थापयति, 'पोत्थयरयणं मुएत्ता'-पुस्तकरत्नं निधायोत्सङ्गे, 'पोत्थयरयणं विहाडेति'-पुस्तकरत्नं पठितुमुद्धाटयति, 'पोत्थयरयणं विहाडेत्ता-पुस्तकरत्नं समुद्घाटय, 'पोत्थयरयणं वाएति' वाचयति पुप्तक रत्नम्-विशिष्टमर्थमुपलब्धुम्, 'पोत्थयरयणं वाएत्ता' पुस्तवरत्नं वाचयित्वा, 'धम्मियं ववसायं गेहति-धार्मिक व्यवसायं प्रगृह्णाति, व्यवसाय कर्तुसभिलपति, व्यवसायसभायाः शुभाऽध्यवसायनिवन्धखात् । क्षेत्रादेरगि कर्मक्षयोपशमहेतुखात, तदुक्तम्-'उदयक्खओवसमो वसमा जं च कम्मुणो भणिया-दव्यं खेत्तं कालं भवं ओगिया देवा पोत्थयरयणं उदणेति' इसके बाद उस विजय देव के अभियोगिक देवों ने वहां उसे एक पुरतकरत्न अर्पित किया 'तएणं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेहंति' तब उस श्रेष्ठ पुस्तक को उस विजयदेव ने ले लिया 'गेण्हेत्ता पोत्थपरयणं सुयति' लेकर उसे उसने अपनी गोदी में रख लिया 'पोत्थयरयणं नुएत्ता' पुस्तकरत्न को गोदी में रख कर 'पोत्थयरयणं विहाडेति' उसने उसे पढने के लिए खोला 'पोत्थयरयणं विहाडेत्ता' पुस्तक रत्न को खोलकर 'पोत्थयरणं वाएति' फिर वह उसे वाचने लगा 'पोत्थयरयण वाएत्ता धग्मियं ववसायं गेहइ वाचकर फिर उसने धार्मिक व्यवसाय काम करने की अभिलाषा की क्योंकि व्यवसाय सभा शुभाध्यवसाय का कारण होती है और इसका कारण भी यह है कि क्षेत्रादिक भी कर्म के क्षयोपशम में हेतु पडते हैं कहा भी है 'उद्यक्खओवसभोवसमा जं च कम्मुणो पोत्थरयण उवणेति' ते पछी मे विस्यवर मालियो वाय त्यां तन ये पुस्त४ २ अ यु. 'तएणं से विजए देवे पात्थयरयणं गेण्हंति' त्यारे को श्रेष्ठ चुस्त २त्न से विश्य हेवे सीधु. 'गेण्हेत्ता पोत्ययरयणं मुयति' ते सन तक तो पाताना मामा यु. 'पोत्थयरयण मुएत्ता' पुस्त४२त्न मोकामा रागीर 'पोत्ययरयणं पिहाडेति' ते पुस्त४ २त्नने तो पांया भाट यु 'पोत्थयरयणं पिहाडेत्ता' पुस्त: २त्नने मालीन 'पोत्थयरयणं वाएंति' पुस्त२नने वायqn या. 'पोत्थयरयणं वाएत्ता, धम्मियं वसायं गेहइ' वांधीनते પછીતેણે ધાર્મિક વ્યવસાય ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા કરી. કેમકે વ્યવસાય સભા શુભ અધ્યવસાયના કારણ રૂપ હોય છે. અને તેનું કારણ પણ એજ છે કે क्षेत्रा४ि ५Y मना क्षयोपशममा तु ३५ डाय छे. ४यु पशु छ है-'उदय क्खओवसमोवममाजं च कम्मुणो भणिया, दव्वं, खेत्तं, कालं, भवं च भावं च
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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