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________________ રિષ્ટ जीयाभिगगसूत्र तंति'-अपि केचन देवा उत्पत्ति-कर्म मन्ति , गगा देवा णिवयंति'अध्येना देवा के वन निपतन्ति-नीचैर्गच्छन्ति, 'अपेगल्या देवा परिवति' अग्यकसा देवाः परिपतन्ति 'अप्पेगल्या देगा उम्पयनि-नियनि-गग्वियंनि'-अध्यकका देवा उत्पतन्ति-निपतन्ति-परिपतन्ति, उत्पतमादित्रयं कुर्वन्तीत्यर्थः । 'गंगल्या देवा जति'-अप्येकका देवा: अन्ति ज्यालामाला लागवन्ति, अप्पेगच्या देवा तति' -अगेकका:-देवासापनि नाप-नप्ता भवन्नि, 'गगल्या देवा पनि'अपि केचन देवाः प्रमपन्ति-सातिशयं तप्ता भवन्ति, 'अपेगटया देशा जनि तवंति नेक देवों ने उस समय आपस में एक दूसरे देवों के नामो को मुनाना प्रारम्भ किया 'अप्पेगइथा देवा हमारंति, उधारनि थुकागति' कितनेक देवों ने उस समय हधार करना बुहार करना और थुधार करना ये तीनों काम करना प्रारम्भ किया तथा 'नामाई मावति' नामों को मुनाना भी शुरुकिया 'अप्पेगड्या देवा उपतनि कितनेकदवों ने उस समय उछल कूद करना प्रारम्भ किया तो 'अप्पेगड्या णिवयंति' किननेक देवों ने जमीन ऊपर लोट पोट करना प्रारम्भ किया 'अप्पेगड्या देवा परिचयंति' कितनेक देव उस समय परिपतन करना प्रारम्भ किया 'अप्पेगया देवा उप्पयंति, णिवति, परिवयंति' किननेक देवों ने उस समय -ये तीनों काम करना भी प्रारम्भ क्रिये ये ऊपर की ओर उछले भी, जमीन पर लौटे भी और इधर उधर फिरकर गिरे भी 'अप्पेगइया देवा जलेति' किननेकदेवों ने उस समय ऐसा नमासा बताया कि मानों वे अग्नि की ज्वाला से ही आकूल व्याकूल हो रहे हैं 'अप्पेगइया देवा मी वाना नाम समापवाना प्राध्यो 'अप्पेगइया देवा हक्कारे ति वुक्कारे ति थुक्कारेंति ८४ हेवाणे ये सभये ९५१२ ४२वानु शु४४१२ ४२वानु मने थु॥२ ४२पानुको त्राणे ४२वाना प्राध्यतया नामाई साति' नाम। समजावानी पY २३ात ४२N. 'अप्पेगइया देवा उगतंति' मा वाम्मे मे मते 60 ६ ४२पान प्रा . तो 'अप्पेगइया णिवयंति' टस हेवाये सभीन ५२ गागोटयानो पार यो 'अप्पेगइया देवा परिवयंति' सा हे ते पते परिपतन ४२वा ताज्या अर्थात् ११.२७ शन. ५७१ साया. 'अप्पेगइया देवा उग्पयंति णिवयंति परिवति' मा हेवाये गे समये ५२नी त२५ वा पार લાગ્યા જમીન પર આળોટવા પણ લાગ્યા. અને આમતેમ કુદરડી ફરીને ५४ा पY साज्या. ओम नार प्रा२यी तमासा ४२ता उता. 'अप्पेगइया देवा जलेति' मा । २ ५मते गेवणेस तापपा साया है तो तय मनिनी यालामाथी माण व्या 45 ह्या छ. 'अपेगइया -
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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