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________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६४ उपपातसभायाः वर्णनम् गङ्गापुलिनवालुकावदालसम्, ओयवियक्षौमदुकूल प्रतिच्छादनम्, रक्तांशुकसंवृतम्, सुरम्यं प्रासादिकं-दर्शनीयमभिरूपं प्रतिरूपम् । तस्याः खलु-'उववाय'सभाए णं उप्पि' उपपातसभाया उपरि, 'अट्ठमंगलगा' अष्टावष्टौ मङ्गलकानि स्वस्तिक-श्रीवत्स-भृतीनि, 'झया' ध्वजाः कृष्णनीलादिकाः 'छत्ताइछत्ता जाव उत्तिमागरा' छत्रातिच्छत्राणि-उत्तमप्रकाराणि षोडशविधैः रत्नवैडूर्यादिभिरुपशोभितानि । 'तीसे गं उववायसभाए' तस्याः खलूपपातसभायाः 'उत्तरपुरस्थिमेणं' ऐशान्याम्, 'एत्थणं एगे महं हरए पन्नत्ते' अत्र खलूपपातसभाया उत्तरपूर्वदिग्भागे-एको महान् हृदःप्रज्ञप्तः॥ 'से णं हरए' स खल हृदः 'अद्धतेरस जोयणाई आयामेण अर्धत्रयोदश-सार्धद्वादश योजनान्यायामेन, 'छक्को. साई जोयणाई बिक्खंभेण' षट् क्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण-क्रोशाधिकानि पड योजनानि विस्तारवृत्त्या इत्यर्थः 'दसजोयणाई उव्वेहेणं' दशयोजनान्यु• शरीर प्रमाण तकिये से युक्त है 'इत्यादि रूप से जैसे सुधर्मासभास्थित देवशयनीय देवशय्याका वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन यहां पर भी इसका करलेना चाहिये 'तस्सा उववायसभाएणं उप्पि' उस उपपात सभा के उपर 'अट्ठमंगलगा' आठ आठ मंगलद्रव्य है एवं कृष्ण नील आदि वर्णवाली अनेक ध्वजाएं हैं तथा छत्रातिछन्त्र हैं। ये छत्राति छत्र सोलह प्रकार के वैडूर्य आदिरत्नों से सुशोभित है। तीसेणं उववायसभाएं उस उपपात सभा की 'उत्तरपुरस्थिमेणं इशानदिशा में 'एत्थणं एगे महं हरए पन्नत्ते' एक विशाल हृद हैं सेणं हरए' 'यह हृद् 'अद्धतेरसजोयंणाई आयामेणं छक्कोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं' लम्बाई में १२॥ योजन का है और चौडाइ में ६। योजन का है । 'दस जोयणाई उन्वेहेणं' तथा इसका उद्वेध १० योजन का है, યુકત છે. વિગેરે પ્રકારથી સુધર્માસભાના દેવશયનીયનું જે રીતે વર્ણન કરેલ छ, मेरा प्रमाणेनु वन मडीयां पशु ४२री 'तस्सा उववायसभाए णं उप्पिं' को पात समानी ५२ 'अट्टमंगलगा' स्वस्ति विगेरे 2418 218 મંગલ દ્રવ્યો છે. અને કૃષ્ણનીલ વિગેરે રંગની ધજાઓ છે. તથા છત્રાતિછત્ર छ. '२॥ छातिछत्री सोण प्रारना डूविगेरे रत्नाथी सुशामित छ. 'तीसेणं उववायसभाए' से id समानी 'उत्तरपुरथिमेणं' न मिi 'एत्य णं एगे महं हरए पन्नत्ते' मे qिue छ. 'से णं हरए' से 'अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छक्कोसाइं जोयणाइ विक्खंभेणं' मा १२॥ सा। मा२ यौन छ. म. पाडणाभासा छ योन छ. 'दस जोयणाई उन्वेहेणं' तथा तेना द्वेष १० इस योजना छ. 'अच्छे सण्हे' मा २५२७
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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