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________________ जीवामिगमसूत्र 'कीलागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमत गधुद्ध्यामिरामा' कालागुरुप्रवरकुन्दरुष्क तुरुप्क धूपमघमवायमानगन्धोद्धृताभिरामा, कालागुप्रवरकुन्दरुष्कतुरुष्कादयों ये धृपा स्तेपां सर्वदिशि प्रसरन्तो ये गन्धा आमोदास्तैमनोहरेति यावत्, तथासुगंधवरगंधिया' सुशोमनो यो गन्धस्तेन वरगंधा, 'गंधवटिभूया' गन्धवर्तिभूता, सौरभ्यातिशयात् गन्धद्रव्यशुटिका तुल्या, तथा-'अच्छरगणसंघसंविकिमा' पृथक् पृथक् अप्सरसोग़णानां संधैविकीर्णा व्याप्ता, तथा-'दिव्य तुडिय महुरसह संपडाइया' दिव्यत्रुटितमधुरशब्दसंप्रणादिता, दिव्यः मुरलौकिकः त्रुटितः सतालमृदङ्गादिवाथैः सम्पादितो अतएव मधुरो यः शब्दस्तैः संप्रणादिता 'मुरम्मा' सुरम्या मनसो रमणस्थानत्वेन स्थिता 'सव्य रयणामई' सर्वरत्नमयी 'अच्छा जाव पडिरूवा' अच्छा-आकाशस्फटिकवत् निर्मला उलक्ष्णा लण्हा घृष्टा मृण्टा निर्मला के सरस सुगंधित पुष्पो के पुंज से यह सभा युक्त है-सुशोभित है । 'कालागुरुपवर कुदुरुक्कतुरुक्क धूवमघमघंतगंधळूयाभिरामा' काला गुरु आदि जो सुगंधित द्रव्य है, वे सब यहां पद रखी हुई है अतः चारों दिशाओं में इनका गंध फैल रहा है अतः उससे यह सुशोभित है'सुगंधवरगंधिया' .सुगंध से यह सराबोरवनी हुइ है। अतः 'गंधवद्विभूया' यह गन्धवर्ती के जैसी बनी हुई प्रतीत होती है 'अच्छरगण संगसंविकिन्ना' पृथक् पृथक् यह फैले हुए अप्सराओं के गणों से खचाखच भरीहुई है। दिव्चतुडियमहुरसहसंपडाइया' दिव्यवादित्रों के मधुर शब्दों से यह प्रतिध्वनित बनी हुई है । 'सुरम्मा' इसे देखने वालों के मनको वडा इससे आनन्द होता है। 'सव्वरयणामई, यह सर्वात्मना रत्नमयी है 'अच्छा जाव पडिरूवा' आकाश एवं स्फटिकપાંચ વર્ણન સરસ સુગંધિત પુષ્પના પુજેથી આ સભા યુકત છે. અર્થાત घjlt सुशोलित छ. 'कालागुरु पवर कुंदुरुक्कतुरुक्क धूवमधमपंतगधुङ्ख्या भिरामा' . ten Y३ विगेरे २ सुपित द्रव्यो छे ते मया । द्रव्यो मडीया રાખવામાં આવેલ છે. તેથી ચારે દિશામાં તેની સુગંધ ફેલાઈ રહેલ છે. તેથી तेनाथी ते शायमान याय छे. 'सुगंधवर गंधिया' सुमधथी ये त२माण गनेस छ. तेथी 'गंधवट्टिभूया' ते म पति-सुधना पाट रेवी मने माय छ. 'अच्छरगणसंगसंविकिन्ना' नुहा । सायेहा अप्सरामाना समूहाथी, भायाभीय मराये छे. 'दिव्य तुडियमहुरसहसंपडाइया' दिव्य पात्राना- मधुर भधुर शहाथी ते प्रतिध्वनित भने छ. 'सुरम्भा ते नेनारामान भनने । धणे मान थाय छे. 'सव्वरयणामई से सर्वात्मना रत्नभय छे. 'अच्छा जाव पडिख्वा' मा भने २२टिमणिनी भते नि छ. यावत् प्रति३५ .
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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