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________________ जीवामिगमसूत्र १६२ शुभ-फलविपाकोयं प्रत्येकमनुभवन्तो यथामुखं विहरन्तीति ॥ 'तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स' तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य, 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे, 'एगे महं ओवरियालेणे पन्नत्ते' अत्रैकं महदुपकारिकालयनं प्रज्ञप्त-कथितम् राजधानी रवामिसत्क प्रासादावतंसकादीन् उपकरोति उपप्टम्नाति-इत्युपकारिका, राजधानीस्वामिसत्क प्रासादावतंसकादीनां पीठिकाः अन्यत्रेयमुपकार्योपकारे प्रसिद्धाः । तदुक्तम्-गृहस्थान स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारिका' इति । उपकारिकालयनमिव-उपकारिकालयन विश्रामस्थानम् । तत्-'वारसजोयणसयाई आयाम विक्खंभेणं' द्वादशयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण, दैर्य-विस्ताराभ्यां द्वादशयोजनशतानीत्यर्थः । 'तिन्नि जोयणासहस्साई सत्तनोयण सते' त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त च योजनशतानि, 'पंचाणउते' पञ्चनवतानि-पञ्चनवत्यधिकानि, 'किंचिद् विसेसाहिए' किञ्चिद् विशेषाधिकानि, 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि, 'अद्धकोसं वाहल्लेणं' अर्द्धक्रोशं धनुःसहस्रपरिमाणं वाहल्येन, 'सव्य जेवूणतामते णं' सर्व जाम्बूनदमयंसर्वात्मना सुवर्णमयम् सुवर्णरूपम्, 'अच्छे जाव पडिरूवे' अच्छे स्फटिकवद् कथन पर्यन्त करलेना चाहिये 'तल्ल णं पहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स' उस बहुत अधिक समप्रदेशवाले रमणीय भूमि भाग के 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक वीच भाग में 'एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते' एक बहुत बडा उपकारिकालयन-विश्राम स्थान है । यह 'चारसजोयणसयाडं आयामविश्खंभेणे' लम्बाई और चौडाई में १२ सौ योजन का है। 'तिनिजोयणसहस्साई सत्तयजोयणसये' इसका परिक्षेप ३ हजार सातसौ ९५ योजन से कुछ अधिक है 'अद्धकोसं वाहल्लेणं' तथा इसकी मोटाई आधे कोश की एवं १ हजार धनुषकी है यह स्थान पूरा का पूरा 'सव्वजंबूणयमयं' सुवर्णमय है और 'अच्छे जाव पडिस्वे' स्फवे 'तस्स णं वहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स' मे अधि सभप्रदेशवाणा २मणीय भूमिमान 'वहुमज्झदेसमाए' १२५२ ५-येना लामा 'एग महं ओवरिया लेणे पण्णत्ते' ये मेघ माटु ५ सयन-विश्रामस्थान छ. मा विश्राम स्थान 'वारसजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं' 5 पडामा १२ मार योगनना विस्तारपाणुछ. 'तिन्नि जोयणसहस्साई सत्तय जोयणसये' तेना परिक्ष५ घराव। तर सातसे या योरनथी ४४ पधारे छे. 'अद्ध कोसं वाहल्लेणं' तथा तेना विस्तार मे अस मन मे हुनर धनुष तो छ. या पूरे ५३ स्थान 'सव्या जंवृणयमयं' सुवर्ण भय छे. अने, 'अच्छे जाव - पडिरूवा' टिन भाशुना निम छ. यि युरत छ. धूग विगेरेना
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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