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________________ जीवाभिगमसूत्रे सुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतनृत्यादि विनोदेन वा तिष्ठन्ति, 'मोहंति' विषय सेवनं कुर्वन्ति इत्येवं रूपेण 'पुरापोराणाणं' पुरापौराणानाम् पुरा प्राक, भवे कृतानां कर्मणां इत्यग्रिमेण सम्बन्धः, अतएव पौराणानाम्, 'सुचिण्णाणं' सुची र्णानां-सुचरितानाम्, इह सुचरितं कर्माऽपि मुचरितं 'कार्यकारणोपचारात्' तदयमर्थः विशिष्ट तथाविध धर्माऽनुष्ठानविषयाऽप्रमादकरण क्षान्त्यादि सुचरितानाम्, तथा 'सुपरिकताणं' सुपराक्रान्तानाम् सुपराक्रान्तजनितानि कर्माण्येव सुपरा क्रान्तानि, सकलमैत्री-सत्यभाषण-परद्रव्याऽनपहार सुशीलादि रूपपराक्रमजनितानामिति अतएव-'मुभाणं' शुभानां शुभफलानाम् शुभफलानाम्, इह किञ्चिद् शुभफलमपीन्द्रियविपर्यासात् शुभफलमाभाति ततस्तात्विक शुभव प्रतिपत्यर्थमस्यैव पर्याय शब्दमाह-'कल्लाणं' कल्याणानाम् तत्त्ववृत्त्या तथाविध विशिष्टफलदायिनाम् । अथवा कल्याणानामनापमशमकारिणाम् 'कल्लाणं' कल्याणस्वरूपम्, 'फलवित्तिविसेसं' फलवित्तिविशेष-फलविपाकम्, 'पचणुभवमाणा' प्रत्येक मनुभवसे सुखमिलता है उस प्रकार से ये इधर उधर उन वन पंडों में फिरती हैं तथा मनोविनोद के निमित्त ये कभी कभी-नाचती है कभी-गाती भी हैं और कभी नाना प्रकार के वादित्रों को भी बजाती है। 'मोहंति' कभी २ वे वहां विषय सेवन भी करती है । इस रूप से ये देव देवियां 'पुरा पोराणाणं पूर्व भव में किये हुए अपने ऐसे पुराने कर्मों के जो कि 'सुचिण्णाणं' उस समय में विशिष्ट तथाविध धार्मिक अनुष्ठान करने में अप्रमाद करने से क्षमा आदि भावों के रखने से उपार्जित किये गये, 'सुपरिक्वंताणं' मैत्री सत्य भाषण, परद्रव्यानपहार, एवं सुशीलता आदि रूपपराक्रम के कारण जिनमें अनुभागबन्ध शुभ ही पडा और इसी कारण 'सुभाणं" जो शुभ फल के देने वाले हुए है 'कल्लाणं' अनर्थों को उपशमन करने वाले हुए हैं 'कल्लाणं फलवित्तिविसेसं કયારેક તે ખેલે છે. અર્થાત્ તેને જે રીતે સુખ લાગે તે પ્રમાણે તેઓ આમ તેમ એ વનખંડમાં ફરે છે. તથા મનોવિદ માટે તેઓ કયારેક કયારેક નાચે પણ છે. કયારેક કયારેક ગાય છે અને કયારેક અનેક પ્રકારના વાજી 43 छे. 'मोहंति' ४या२४ ४या२४ तेव्या त्या विषय सेवन प ४२ छे. मा प्रमाणे ते हे मन हेवियो 'पुरापोराणाणं' पूलमा रेसा पोताना सेवा पूर्ण ना ४ीना र 'सुचिण्णाणं' को समयमा विशेष प्राथी ते ने यित धामि । અનુષ્ઠાન કરવામાં અપ્રમાદ કરવાથી ક્ષમા વિગેરે ભાવે રાખવાથી પ્રાપ્ત કરવામાં मावेत 'सुपरिवंताणं' मैत्री सत्यभाष, ५२७व्यानपहरण मने सुशीसपा વિગેરે રૂપ પરાક્રમના કારણે જેમાં અનુભાગ બંધ શુભરૂપ જ થાય અને એજ २'सुभाणं' ने शुभसने माया पायद छ. 'कल्लाणं' मनथान पशभ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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