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________________ जीवाभिगमसूत्र १५२८ क्षुल्लकं भवग्रहणं समयाधिकम्, 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' उत्कर्पतो वनस्पतिकालः । 'पढमसमयदेवस्स जहा पढमसमयनेरइयस्स' प्रथमसमयदेवस्य यथाऽऽस्ते प्रथमसमयनैरयिकस्य, जघन्येन दशवर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि उत्कर्पतो वनस्पतिकालं यावदन्तरं भवतीति । 'अपढमसमयदेवस्स जहा अपढमसमय नेरइयस्स' अप्रथमसमयदेवस्य यथाऽप्रथमसमयनैरयिकस्य जघन्येनान्तर्मुहूतमुत्कर्षेण वनस्पतिकालं यावदन्तरम् । 'सिद्धस्स णं भंते ! अंतरं कालो केवच्चिरं होइ' सिद्धस्य खलु भदन्त ! कालतः कियच्चिरमन्तरम् ? भगवानाहगौतम ! साईयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं' सिद्धस्य सादिकस्याऽपर्यवसिकाल की अपेक्षा. 'जहण्णेणं खुड्डागंभवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' जघन्य से एक समय अधिक क्षुद्र भवग्रहण रूप होता है उत्कृष्ट से बनस्पतिकाल प्रमाण अनन्तकाल का होता है 'पढमसमयदेवस्स जहा पढमसमयनेरइयस्स' प्रथमसमयवर्ता देव का अन्तर काल की अपेक्षा जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त अधिक १० हजार वर्ष का होता है और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल प्रमाण अनन्तकाल का होता है । तथा-'अपढमसमय देवस्स जहा अपढमसमयनेरइयस्स' अप्रथमसमयवर्ती नैरयिक के अन्तर की तरह अप्रथमसमयवर्ती देव का काल की अपेक्षा अन्तर होता है तथा च अप्रथमसमयवर्ती देव का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल प्रमाण अनन्त काल का होता है 'सिद्धस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ' हे भदन्त ! सिद्ध का अन्तर काल की अपेक्षा कितना होता है ? हे गौतम ? सिद्ध सादि अपर्यवसित होते ન્યથી તે એક સમય વધારે મુદ્દભવ ગ્રહણ રૂપ હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી वनस्पति प्रमाण मनतानु डाय छे. 'पढससमयदेवस्स जहा पढमसमय नेरइयस्स' प्रथम समयपति देवनु मत२ जना अपेक्षाथी धन्यथी मे અંતર્મુહૂર્ત વધારે ૧૦ દસ હજાર વર્ષનું હોય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિ tण प्रभा मनात ण डाय. तथा 'अपढमसमयदेवस्स जहा अपढमसमय नेरइयस्स' मप्रथम सभयती नैयिाना मतरना ४थन प्रभारी मप्रथम સમયવતી દેવેનું અંતર કાળની અપેક્ષાથી હોય છે. તે આ પ્રમાણે-અપ્રથમ સમચવતી દેવનું અંતર જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તનું હોય છે. અને Eष्टथी वनस्पति प्रभार सनत जर्नु डोय छे. 'सिद्धाणं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होई' भगवन् ! सिद्धार्नु मत२ जनी अपेक्षाथी । કેટલું હેય છે ? હે ગૌતમ ! સિદ્ધ સાદિ અપર્યવસિત હોય છે. તેથી એક
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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