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________________ १५०६ जीवामिगमसूत्र गौतम ! सर्वस्तोका जीवा मनःपर्यवज्ञानिनः ? ओहिनाणी असंखेजगुणा' एभ्योऽवधि ज्ञानिनोऽसंख्येयगुणाः २ 'आभिणिवोहियनाणी, मुयनाणी, एए दोवि तुल्ला विसेलाहिया' एभ्य आभिनिवोधिकज्ञानिन:-श्रुतज्ञानिनश्च विशेषाधिकाः स्व स्थाने तु-द्वयेऽपि तुल्याः४ । 'विभंगनाणी असंखेज्जगुणा' तेभ्यो विभङ्गज्ञानिनोऽसंख्येगुणाः अज्ञानिनामति प्रभूतत्वात् ५। 'केवलनाणी अणंतगुणा' एभ्यः केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः६ सिद्धानामनन्तखात् । 'मईअन्नाणी-सुय-अन्नाणी य दो वि तुल्ला अणंतगुणा' मत्यज्ञानिः श्रुताज्ञानिनवाऽनन्तगुणाः स्वस्थाने द्वयेऽपि तुल्याः परस्परम् ८ । 'अहवा अट्ठविहा सव्वजीवा पन्नत्ता तं जहाजीवा मणपज्जवनाणी' हे गौतम ! सब से कम मनापर्यवज्ञानी जीव है। 'ओहिणाणी असंखेज्जगुणा' इनकी अपेक्षा अवधिज्ञानी जीव असंख्यातगुणे अधिक हैं इनकी अपेक्षा 'आभिणियोहियनाणी सुयनाणी एए दो वि तुल्ला विसेसाहिया' आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी ये दो विशेषाधिक हैं परन्तु अपने २ स्थान में ये दोनों तुल्य हैं । 'विभंगनाणी असंखेजगुणा' इनकी अपेक्षा जो विभंगज्ञानी जीव हैं वे असंख्यातगुणे अधिक हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवों की बहुत अधिकता है 'केवलनाणी अणंतगुणा' इककी अपेक्षा केवलज्ञानी जीव अनन्तगुणें अधिक हैं क्योंकि सिद्ध जीवों को अनन्त कहा गया है 'मइअन्नाणी सुयअन्नाणी, य दो वि तुल्ला अणंतगुणा' सिद्धों की अपेक्षा मत्यज्ञानी, और श्रुताज्ञानी, ये दोनों अनन्तगुणें अधिक हैं पर स्वस्थान में ये दोनों तुल्य हैं 'अहवा अट्ठविहा सव्वमणपज्जवणाणी' गौतम ! सौथी माछ। ' मन:पय ज्ञानी ७१ छे. 'ओहिणाणी असंखेज्जगुणा' तेना ४२di अवधि ज्ञानवाण wal मसच्यात. ग धारे छे. तेना ४२i 'आभिणिबोहियनाणी सुयणाणी एए दो वि तुल्ला विसेसाहिया' मालिनिमाधिज्ञानी मने श्रुतज्ञानी ये मन्न विशेषाधि छे. परंतु त्या पातपाताना स्थानमा मेमन्त स२॥ छे. 'विभंगणाणी असंखेज्जTri' તેના કરતા વિર્ભાગજ્ઞાની જે જીવ છે તેઓ અસંખ્યાતગણું વધારે છે. भ-मिथ्या टिवाणा वानी ध४ मधित छ. 'केवलनाणी अणतगुणा' તેના કરતાં કેવળજ્ઞાની જીવ અનંતગણું વધારે છે. કેમકે–સિદ્ધ છે ને मन त वामां आवेस 'मइ अन्नाणी सुय अन्नाणी य, दो वि तुल्ला अणतगुणा' सिद्धीन४२di भतिज्ञानी, सन श्रृताज्ञानी; 2. मन्ने मानतगण पधारे छ. मन स्वस्थानमा को भन्ने स२मा छ. 'अहवा अदृविहा सव्वजीवा पण्णत्ता'
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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