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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१५० जीवानां सप्तविधवनिरुपम तेजोलेश्याकः, उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे पल्योपमस्याऽसंख्येयभागाधिके-एतावकालमीशानदेवानां स्थितिः। 'पम्हलेस्से णं भंते !०' पद्मलेश्यः खलु भदन्त ! कालतः कियचिरम् ? गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं दससागरोवमाई अंतोमुहुत्तमब्भहियाइ" जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्-उत्कर्षेण दशसागरो‘पमाणि अन्तर्युहूर्ताभ्यधिकानि ब्रह्मलोकवासिन एतल्लेश्यावन्तः । मुक्कलेस्से णं भंते !' शुक्कलेश्याकः खलु शुक्कलेश्याक इति कृत्वा कालतः कियचिरं० सेणं दोणिसागरोवमाइं पलिओवमस्त असंखेज्जइ भागमभहियाई हे गौतम ! तेजोलेश्या वाले जीवों की कायस्थिति का काल जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अधिक दो सागरोपम का होता है यह उत्कृष्ट कायस्थिति का कथन ईशान देवों की भवस्थिति को लेकर किया गया है 'पम्हलेस्सेणं भंते ! हे भदन्त ! पद्मलेश्या बाले जीव की कायस्थिति का काल कितना होता है ? उत्तर में प्रभु ने कहा-हे गौतम ! पद्मलेश्या वाले जीव की काय. स्थिति का काल 'जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई' जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त अधिक १० सागरोपम का होता है। इस लेश्या वाले ब्रह्मलोक कल्प के देव होते हैं-सुक्कलेस्सेणं भंते !' हे भदन्त ! शुक्ललेश्या वाले जीवों की कायस्थिति का काल कितना कहा गया है इसके उत्तर मे प्रभु कहते हैं ? हे गौतम ! शुक्ललेश्या वाले લેશ્યા વાળા ની સ્થિતિને કાળ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તને હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પાપમના અસંખ્યાત ભાગથી વધારે બે સાગરેપમને . હાય છે. આ ઉત્કૃષ્ટ કાયસ્થિતિનું કથન ઈશાનદેવેની ભવંસ્થિતિને લઈને ४२पामा मावेश छे. 'पम्हलेस्सेण भंते ! भगवन् ! पदोश्या पाया पनी કાયસ્થિતિને કાળ કેટલે હેય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીએ કહ્યું 3-3 गौतम ! पालेश्या वाणानी आयस्थितिना ४५ 'जण्णेण अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्त मन्भहियाई धन्यथी मे मतभुताना હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતમુહૂર્ત અધિક ૧૦ દસ સાગરોપમને હેય छ. या वेश्या ग्रहासो ४६५ना हे हाय छे. 'सुक्कलेस्सेणं भंते !' 3 लगपन् શુકલેશ્યાવાળા ની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલું હોય છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! શુકલેશ્યાવાળા જીની કાયસ્થિતિને કાળ જઘન્યથી
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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