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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१४९ जीवानां पइविधत्वनिरूपणम् १४६७ नन्तगुणाः सिद्धानामनन्त गुणत्वात् । 'अन्नाणी अनंतगुणा' केवलज्ञानिभ्योऽज्ञानिनोऽनन्तगुणाधिकाः वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽपि अनन्तत्वात् । 'अहवा-छविहा सब्बजीवा पन्नता तं जहा-एगिदिया-वे दिया-तेइंदिया-चउरिदिया-पंचिदिया अणिदिया' पक्षान्तरेऽपि सर्वजीवाः पविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकेन्द्रियाः द्वीन्द्रियाः त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः अनिन्द्रियाः ६ । 'संचिट्ठणांतरा जहा हेहा' संचिट्ठणाऽन्तरे यथाऽधस्तात् एकेन्द्रियादीनां कायस्थितिरन्तरं च व्याख्यातपूर्वेकेन्द्रियादिप्रकरणतः 'अप्पाबहु०' अल्पवहुत्वविचारे-एपाम् 'सव्वत्थोवा पंचिंदिया' सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः 'चउरिंदिया विसेसासिद्ध जीच अनन्त कहे गये हैं। इनकी अपेक्षा जो अज्ञानी जीव हैं वे अनन्तगुणें अधिक हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों की अपेक्षा अनन्तगुणें अधिक कहे गये हैं । 'अहवा छन्विहा सव्वजीवा पन्नत्ता' अथवा-इस रीति से भी समस्त जीव छह प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा' जैसे-'एगिदिया बेइंदिया, तेइंदिया चउरिंदिया, पंचिंदियो, अणिदिया' एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अनिन्द्रिय इस प्रकार के इन भेदों में संसारी और असंसारी समस्त जीव अन्तर्हित हो जाते हैं । 'संचिटणांतरा जहा हेट्टा' जिस प्रकार ले पहिले एकेन्द्रियादिक जीवों की कायस्थिति और अन्तर इनके सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा चुका है उसी प्रकार से इस प्रकरण में भी इनकी कायस्थिति और अन्तर के सम्बन्ध में प्रकाश डाल लेना चाहिये 'अप्पा बहुय' इनके अल्पबहुत्व का विचार-इस प्रकार से है 'लव्वत्थोषा पंचिंदिया' पश्चेन्द्रिय जो जीव हैं वे सब से कम हैं હેવાનું કહેવામાં આવેલ છે. તેના કરતાં જે અજ્ઞાની જીવ છે તે અનંતગણું વધારે કહેવામાં આવેલ છે. કેમ કે વનસ્પતિકાય વાળા જીવો સિદ્ધોના કરતાં ५५ मन तग धारे हुवामा मावेस छे. 'अहवा छविहा सव्व जीवा guત્તા અથવા આ રીતે પણ સઘળા છ છ પ્રકારના કહેવામાં આવેલા छे. 'तं जहाभ 8-एगिदिया, वेइंदिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पचिंदिया, अणिंदिया' सन्द्रिय, मेन्द्र, तेन्द्रिय, यौन्द्रिय, पथन्द्रिय मने मनी:ન્દ્રિય, આ પ્રકારના આ ભેદમાં સંસારી અને અસંસારી સઘળા અને समावस २४ तय छे. 'संचिट्ठणान्तरा जहा हेद्वारे प्रभारी पडसा भेन्द्रिय વિગેરે ની કાયસ્થિતિ અને અંતરના સંબંધમાં કથન કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે આ પ્રકરણમાં પણ તેમની કાયસ્થિતિ અને અંતરના સંબંધમાં કથન કરીલેવું.
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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