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________________ ૪૬૨ जीवाभिगमसूत्रे क्षयाऽभावात् । अज्ञानी भदन्त ! कालतः कियच्चिरम् ? गौतम ! ' अन्नाणिणो तिविहा पश्नत्ता' अज्ञानी त्रिविधः 'तं जहा - अणाईए वा अपज्जवसिए अणाईए वा सपज्जवसिए साईए वा सपज्जासिए तत्थ जे ते साईए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुडुतं' तद्यथा - अनादिकोवाऽपर्यवसितः १ अनादिको वा सपर्यनसितः २ सादिको वा सपर्यवसितः ३ तत्र त्रिषु तृतीयोऽन्तर्मुहूर्त जघन्येन तत ऊर्ध्वं कस्यापि सम्यक्त्वलाभतो भूयोऽपि ज्ञानित्व भावात् । 'उक्कोसेणं अणं तं कालं अब पोग्गल रियहं देखणं' उत्कर्पतोऽनन्तं कालमपार्श्वे पुद्गलपरावर्ती देशोनम् एतावता कालेन भ्रष्ट ज्ञानिनः पुनर्ज्ञानित्वलाभात् । आभिनिवोधिकहे भदन्त ! अज्ञानी जीव अज्ञानीरूप से कितने काल तक रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम ! अज्ञानी तीन प्रकार के कहे गये हैं 'त' जहा' जैसे- 'अणादीए वा अपजवसिए अणादीए वा सपज्जवसिए, सादीए सपज्जवसिए' एक अनादि अपर्यवसित अज्ञानी और दूसरा अनादि सपर्यवसित अज्ञानी और तीसरा सादि सपर्य - वसित अज्ञानी 'तत्थ जे ते सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' इनमें जो अज्ञानी सादि सपर्यवसित है, वह कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक उस स्थिति में रहता है और इसके बाद सम्य के लाभ से उसमें ज्ञानित्व का सद्भाव हो जाता है तथा अधिक से अधिक 'अनंत' कालं अवडुं पोग्गल परियहं देणं' वह अनन्तकाल तक अज्ञानी रूप बना रहता है इसमें अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां समाप्त हो जाती हैं तथा क्षेत्र की अपेक्षा कुछ नाश याभतु' नथी. तेने पर्यवसित उडेस छे. 'अण्णाणिणो तिविहा पण्णत्ता' હે ભગવન્ ! અજ્ઞાની જીવ અજ્ઞાની પણાથી કેટલા કાળ પર્યન્ત રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! અજ્ઞાનીચે ત્રણ પ્રકારના ठडेवाभां मावेस छे. 'तं जहा' ते या प्रमाणे छे- 'अणादीए वा अपज्जवसिए अणादीए वा सपज्जवसिए; सादीए सपज्जवसिए' मे मनाहि अपर्यवसित અજ્ઞાની અને ખીજા અનાદ્ઘિ સપયવસિત અજ્ઞાની તથા ત્રીજા સાદિ સર્પ - षसित अज्ञानी 'तत्थ जे ते सादीए सपज्जवसिए से जहणणेणं अंतोमुहुत्तं ' तेभां જે અજ્ઞાની સાદિ સપયવસિત છે. તે ઓછામાં ઓછા એક અંતર્મુહૂત પન્ત એ સ્થિતિમાં રહે છે અને તે પછી સમ્યક્ત્વના લાભ થવાથી તેનામાં ज्ञानी या भावी लय छे तथा वधारेभा वधारे 'अनंत कालं अवढं पोग्गल परियट्टं देसूणं' ते अन ंतअज पर्यन्त अज्ञानीपणाथी रहे छे. तेमां अनंत उत्सપિણીયા અને અનત અવસર્પિણીયા સમાપ્ત થઇ જાય છે. તથા ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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