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________________ जीवाभिगमसूत्रे ૪૨૦ अंतोमुहुत्तं' मनोयोगिनः खलु भदन्त ! मनोयोगितया कालतः कियच्चिरम् ? भगवानाह - गौतम ! जघन्येनैकं समयं यावद्भवन्ति उत्कर्षेणाऽन्तर्मुहूर्तम् तथा च जीवस्वभावतया नियमत उपरमाद् भापकवत् । एवं वचो योगिनोऽपि ज्ञेयः । काय जोगी जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं - उक्कोसेणं वणस्सइकालो' कायजोगी - एकेन्द्रियादिरन्तर्मुहूर्त जघन्यतो द्वीन्द्रियादिभ्यः उद्वृत्य अन्तर्मुहूर्त्त पृथि यादौ स्थित्वा भृयः कस्यापि द्वीन्द्रियादौ गच्छति उत्कर्पेण वनस्पतिकालः प्रागुक्तस्वरूपः | 'मणजोगिस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुतं - उक्कोसेणं वणस्सकालो' मनोयोगिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम्, ततो भूयो विशिष्ट मनोयोगपुद्गलग्रहण सम्भवात् । उत्कर्षेणा वनस्पतिकालः, तावन्तं कालं स्थित्वा भूयो मनोयोगिषु आगमन संभवात्, ' एवं वइजोगिस्स वि' एवं वचोयोगिनोऽपि जघन्यत उत्कएक्कं समयं उक्को० अंतो०' हे भदन्त ! जो जीव मनोयोगी है वह मनोयोगी रूप से कितने समय तक रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम! मनोयोगी मनोयोगी रूप से कम से कम एक समय तक रहता है और अधिक से अधिक एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । इसके बाद वह भाषक की तरह नियमतः उस योग से उपरमित हो जाता है ' एवं बहोगी वि' इसी तरह से वचनयोगी भी वचनयोगी रूप से कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक एक अन्तर्मुहूर्त तक बना रहता है बाद में वह भी उस योग से उपरमित-रहित हो जाता है काययोग ७ प्रकार का है औदारिक काययोग १ औदारिक मिश्रकाययोग २ वैक्रियकाययोग ३ वैक्रियमिश्र काययोग ४ आहारक काययोग ५ आहारकमिश्र काययोग ६ और कार्यण काययोग ७ इनमें से किसी एक काययोग वाला जीव हे भदन्त ! कितने अतोमुहुत्तं' È लगवन् ! ? लव मनोयोगी छे, ते मनोयोगी पाथी डेटसा કાળ પન્ત રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! મનેયાગી મનાયેગી પણાથી એછામાં એછા એક સમય પન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે એક અંતર્મુહૂત પન્ત રહે છે. તે પછી તે ભાષકની प्रेम नियमतः ये योगथी रहित थर्ध न्नय छे. 'एवं वइजोगी वि' मे४ પ્રમાણે વચનચેાગી પણ વચનચેગી પણાથી એછામાં એછા એક સમય પયન્ત અને વધારેમાં વધારે એક અંતર્મુહૂત પન્ત બનેલા રહે છે. તે પછી તે પણ એ ચેગથી રહિત થઇ જાય છે. કાયસેગ સાત પ્રકારના હોય છે. તે આ પ્રમાણે છે.-ઔદારિક કાય ચાગ ૧ ઔદ્યારિક મિશ્ર કાય ચેાગ ૨, વૈક્રિય કાય ચેાગ ૩ વૈક્રિય મિશ્રકાય
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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