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________________ जीवाभिगमने १४०० तस्य जहन्नेणं अंतोतं -उकोसेणं असं खेज्जं कालं पुढवीकालो' कायापरीत्तस्य भदन्त 10 प्रश्नः - जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् - उत्कर्षेणाऽसंख्येयं कालं यावत्पृथिवीकालः तत्र पृथिवीकालः - पृथिव्यादि प्रत्येकशरीरकाल इत्यर्थः इत्युत्तरम् । 'संसारापरिves arateer अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' अनाद्यपर्यवसितसंसारांपरीतस्य नास्त्यन्तरम् अपर्यवसितस्वात् । 'अणादीयस्स सपज्जवसियस्स नत्यि अंतर' अनादि सपर्यवसितस्याप्यन्तरं नास्ति संसारापरीतत्वापगमे पुनस्तदभांवात् । 'नो परित्त नो अपरित्तस्स वि णत्थि अंतरं' नो परीत्त नो अपरीत्तस्य साध- प्राप्त हो जाने पर पुनः संसार परितत्व का अभाव नहीं होता है क्योंकि संसारपरित मुक्त होता है और जो मुक्त हो गया है उसका पुनः संसार में आना होता नहीं है । हे भदन्त ! कायापरित का कितना अन्तर है ? उत्तर में प्रभु ने कहा है- हे गौतम ! कायापरीत्त का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से पृथिवी काल के जैसा असंख्यात काल का है पृथिवीकाल से यहाँ पृथिव्यादि प्रत्येक शरीर कॉल लिया गया है । 'संसारापरित्तस्स अणादीयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' अनादि अपर्यवसित संसारापरित्त-का अन्तर नहीं होता है क्योंकि अन्तर में पर्यवसितता आती है - यहां वह है नहीं । 'अणादीयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' इसी तरह से अनादि सपर्यवसित संसारापरित का अन्तर नहीं होता है । क्योंकि संसारापरितत्व के अपगम में पुनः संसारापरितत्व की - असंभवता है । 'नो परीत्त नो अपरीत्तस्स वि णत्थि अंतरं' नो परीत्त 1. છે. સંસાર પરિતનું અંતર હેાતું નથી. કેમકે સ ́સાર પરિત્ત મુક્ત હોય છે. જેએ મુક્ત હેાય છે, તેએનું સંસારમાં ફરીથી આવવાનું થતું નથી. હું ભગવન - કાયઅપરોતનું કેટલું અંતર કહેલ છે ? આના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! કાય અપરીતનુ અંતર જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂત'નુ છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પૃથ્વી કાલ પર્યંન્તનું અર્થાત્ અસંખ્યાત કાળનું છે. પૃથ્વીકાળ पढथी अडीयां पृथिवी विगेरे प्रत्येक शरीरना आज सेवामां आवे छे. 'संसार • परित्तस्स अणादीयस्स अपज्जवसीयस्स नत्थि अंतरं' मनाहि अपर्यवसित संसार *પત્તિને અંતર હોતું નથી. કેમકે અ ંતરમાં પ`વસિતપણું આવે છે. અહીંયાં ते नथी. 'अणादायस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' भेग प्रमाणे अनाहि સપ વસિત સંસાગપત્તિને અંતર હાતુ નથી. કેમકે સંસારના અપરિતત્વ પણાને પગમ થાય ત્યારે ફરીથી સંસારાપતિપણાના અસભવ હોય છે. 'नो परित्त नो अपरितस्स वि णत्थि अंतरं नो परित भने नो अपरितने पशु અંતર હોતું નથી. કેકે અપવસિતપણામાં અંતર હોતું નથી
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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