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________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.१० सु.१४२ प्रकारान्तरेण सर्वजीवानां द्वैविध्यम् १३५१ ___'अहवा दुविहा सन्धजीवा पन्नत्ता' अथवा सर्वजीवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा-'सलेस्सा य अलेस्सा य' सलेश्याश्च अलेश्याश्च तत्र-लेश्याजीवपरिणामरूपा सा विद्यते येषां ते सलेश्याः संसारिणो जीवा इत्यर्थः न विद्यते लेश्या कृष्णादिका परमशुक्लपर्यवसाना येषान्तेऽलेश्याः सिद्धाः जीवाः इत्यर्थः। तदेवातिदेशेन दर्शयति-'जहा असिद्धा सिद्धा' येनैव प्रकारेण सिद्धाऽसिद्धयो निर्वचनं तथैव-सलेश्याऽलेश्ययोः कर्तव्यम् सम्पति सलेश्याऽलेश्ययोकाल तक का होता है । इसमें यावत् कुछ काम अर्धपुद्गल परावर्त काल समाप्त हो जाता है। 'अहया दुविहा सच जीवा पण्णत्ता' अथवा-सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। 'तं जहा' जैसे-'सलेस्सा य अलेस्ला य' एक लेश्या युक्त और दूसरे लेश्या रहित जीवों के परिमाणरूप लेश्याएं होती है ये लेश्याएं जिन जीवों के होती है वे सलेश्य जीव है ऐसे जीव संसारी होते हैं और जिनके ये लेश्याएं नहीं होती है वे अलेश्य जीव है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत पद्म, और शुक्ल इस प्रकार से ६ लेश्याएं आगमग्रन्थों में प्रतिपादित हुई है । सिद्ध जीवों में ये लेश्याएं नहीं होती है अतः इन्हें अलेश्य कहा गया है। 'जहा अलिद्धा सिद्धा' जिस प्रकार से पहिले असिद्ध और सिद्धों का निर्वचन किया जा चुका है उसी प्रकार से इन सलेश्य और अलेश्य जीवों का भी निर्वचन व्याख्यात कर लेना चाहिए इनमें 'सव्वत्थोवा अलेस्सा' सब से कम અનંતકાળ સુધીનું અંતર હોય છે. તેમાં યાવત્ કંઈક કમ અર્ધ પુદ્ગલ પરાવર્તકાળ સમાપ્ત થઈ જાય છે. 'अइवा दुविहा सव्वजीवा पण्णता' मया सर्व व मे. प्रारना . वाम मावस छ. भिडे 'सलेस्साय अलेस्साय' ४ सखेश्य अर्थात् वेश्या. વાળા જીવ અને બીજા અલેશ્ય-લેશ્યા રહિત જીવ ના પરિમાણુ રૂપ લેશ્યાઓ હોય છે. એ લેશ્યાઓ જીવને હોય છે, તે સલેશ્ય જીવ કહેવાય છે. એવા જ સંસારી હોય છે. અને જેમને એ લેગ્યાઓ હોતી નથી તેઓ અલેશ્ય જીવ કહેવાય છે. કૃષ્ણ, નીલ, કાપિત પીત–પીળી, પદ્મ, અને શું આ રીતે ૬ છ લેશ્યાઓ આગમ ગ્રંથમાં પ્રતિપાદિત થયેલ છે. સિદ્ધ માં એ વેશ્યાઓ હતી નથી. તેથી તેઓને मतेश्य वामां आवे छे. 'जहा असिद्वा सिद्धा' २ प्रमाणे पडसा मसिद्ध અને સિદ્ધોનું વિવેચન કરવામાં આવી ગયેલ છે. એ જ પ્રમાણે આ સલેશ્ય मन मसेश्य खानु विवेयन प ४२री ने ये. तेभा 'सम्वत्थोवा
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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