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________________ - - - जीवामिगमस्त श्रेणि समाप्तौ भवक्षयादपान्तराले मरणतो वा प्रतिपततो वेदोदये पुनःसवेदकत्वोपपत्तः । 'तत्य णं जे से सादीए सपज्जवसिए' तत्र खलु तेषु त्रिपु सवेदकः सादि सपर्यवसितः ‘से जहन्नेणं अंतोमुहूत' तस्य सादि सपर्यवसितसवेदकस्य जपन्येनाऽन्तर्मुहूर्तमन्तरम् श्रेणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरन्तर्मुहूर्ते न श्रेणिप्रतिपत्तौ-अवेदकत्व भावात्, अत्राह कश्चित् किमेकस्मिन् जन्मनि वेलाद्वयमुपशमश्रेणीलामो भवति ? यदेवमुच्यते, सत्यम्-एतद्भवति उक्तञ्च -'नैकस्मिन् जन्मनि उपशमश्रेणिः क्षपकणिश्च जायते' उपशमश्रेणि द्वयन्तु जायत एवेति, तत एवमुपपद्यते जघन्येनाऽन्तर्मुहूर्तम् । 'उकोसेणं अणंतं कालं' उत्कर्षे णानन्तकालम् उपशमणि की प्राप्ति से वेद का उपशमन कर लिया है और उसके उत्तर काल में अवेदकत्व का अनुभवन करके उस श्रेणि से पतित होने पर पुन: वेदोदय वाला बन गया है 'तत्थणं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुतं' ऐसे उस सादि सपर्यवसित सवेदक जीव की कायस्थिति का काल जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है क्योंकि ऐसा वह जीव एक अन्तर्मुहूर्त तक सवेदक बन कर पुन: उपशमणि का लाभ करने पर अवेदक बन जाता है यहां ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि 'क्या एक जन्म में दो बार उपशम श्रेणि का लाभ जीव को होता है क्योंकि एक जन्म में उपशम श्रेणि का लाभ जीव को दो वार तक हो जाता है हां ऐसा तो होता है कि एक जन्म में उपशमणि और क्षपक अणि इन दो का लाभ नहीं होतो है पर एक जन्म में दो बार उपशम श्रेणि का लाभ हो जाता है । अतः इस अपेक्षा सादि सपर्यवसित सवेदक जीव की काय અને તેના ઉત્તરકાળમાં અદક પણને અનુભવ કરીને એ શ્રેણથી પતિત , या पछी शथी वहीयवासनी लय छ; 'तत्थणं जे से सादीए सपज्जसिए से जहण्णेणं अतो मुहुत्त' मेवात सा सप वसित सहर पनी स्थिति ને કાળ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તને છે કેમકે એ તે જીવ એક અંત હુર્ત સુધી સવેદક બનીને ફરીથી ઉપશમ શ્રેણીને લાભ કરવાથી અવેદક બની જાય છે, અહીયાં એવી શંકા કરવી ન જોઈએ –કે શું એક જન્મમાં બે વાર ઉપશમ શ્રેણીને લાભ જીવને થાય છે? કેમકે એક જન્મમાં ઉપશમ શ્રેણીને લાભ જીવને બે વાર સુધી થઈ જાય છે; હો એવું તે થતું નથી કે એક જન્મમાં ઉપશમ શ્રેણી અને ક્ષપક શ્રેણી એ બેને લાભ થતો નથી, પરંતુ એક જન્મમાં બે વાર ઉપશમ શ્રેણીને લાભ થઈ જાય છે, તેથી આ અપેક્ષાથી સાદિ સપર્યવસિત સંવેદક જીવની કાયસ્થિતિને કાળ જઘન્યથી એક
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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