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________________ . . . . १३३८ जीवाभिगमसूत्र सलेश्याः कृष्णनीलादि लेश्यावन्तश्चैव लेश्यारहिताश्चत्र व्याख्ययाः नथा-सशरीराश्चैव अशरीराश्चैव, 'संचिढणं अंतरं अप्पा बहुयं जहा सई दियाण सकायिकादारभ्याऽशरीरान्तभेदभिन्नानां सर्वेषां संचिढणं कायस्थिति:- अन्तरम् अल्पवहुत्वं च ज्ञातव्यं सेन्द्रियवत् । 'अहवा-दुविहा सन्यजीवा पन्नत्ता तं जहा सवेयगा चेव अवेयगा चेव । सवेयए णं भंते ! सवेयए त्ति कारओ केवच्चिरं०' अथवा पक्षान्तरे द्विविधाः सजीवाः तद्यथा-सवेदकाचवाऽवेदकाश्चैव का भदन्त ! सवेदकः सवेदक इति रूपेण कालतः खलु कियच्चिरं भवति ? भगवानाह-'गोयमा ! सवेयए तिबिहे पन्नत्ते, तं नहा-अणाईए अपज्जवसिप जीव दो प्रकार के होते हैं इनमें जो कृष्ण नील आदि लेश्याओं से युक्त होते हैं वे सलेश्य जीव हैं और जो इनसे हीन होते हैं वे अलेश्य जीव हैं । इनके सम्बन्ध में 'संचिट्ठणं अंतरं अप्पा पहुगं जहा सइंदियाणं' कायस्थिति का कथन अन्तर कथन एवं अल्पयत्व का कंथन सेन्द्रिय जीवों के प्रकरण की तरह ही जानना चाहिये । तथा ये सब प्रकरण कथन समस्त जीव दो प्रकार के हैं एक 'ससरीरा चेव असरीरा चेव' शरीर सहित और एक शरीर रहित यहां तक के प्रकरण तक कहा गया जानना चाहिये 'अहवा-दुविहा सव्व जीवा पणत्ता' अथवा समस्त जीव दो प्रकार के इस प्रकार से भी कहे गये है-'तं जहा' जैसे 'सवेदगा चेव अवेदगा चेव' एक सवेदक और और अवेदक 'सवेदएणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होई' हे भदन्त ! सवेदक जीवों की कायस्थिति कितनी कही गई है। इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! सवेदए तिविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! सवेदक તેમાં જેઓ કૃષ્ણ નીલ વિગેરે લેશ્યાથી યુક્ત હોય છે. તેઓ સલેશ્ય છવ છે અને તેનાથી જે . રહિત હોય તેઓ અલેશ્ય છવ છે. તેઓના સંબંધમાં 'संचिढणं अंतरं अप्पा बहुगं :जहा संइदियाण' यस्थितिनु ४थन, अंतर्नु કથન, અને અલ્પ બહત્વનું કથન સેંદ્રિય જીવોના પ્રકરણ પ્રમાણે જ સમજી લેવું, તથા તે તમામ પ્રકરણનું કથન “સઘળા છે બે પ્રકારના છે, એક 'ससरीरा चेव असरीरा चेव' शरीर सहित अन ४ शरी२ २हित मा ४थन सुधीन ४२नु ४थन डेस छे म समा. 'अहवा दुविहा सव्व जीवा पण्णत्ता' अथवा संघा' प्रा२ना मा शत थाय छ-भ-'सवेदगा चैव अवेदगां चेव' मे४ सवै भने मी अव४४ 'सवेदएणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होई" भगवन् स४ लोनी स्थिति ही वामां आवेस छ १ मा प्रश्न उत्तरमा . प्रभुश्री ४ छ है-'गोयमा । सवेदए तिविहे
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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