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________________ १३३ जीवाभिगमसूत्र अर्थ भाव:-यस्मादयं सादिरपर्यवसितस्तस्मात्कारणानास्ति अन्तरम् अन्यथाऽपर्यवसितत्वं न स्यात् इति । 'असिद्धस्स णं मंते ! केवइयं अंतरं होई' असिदस्य खल भदन्त ! कियत् कालमन्तरं भवति ! 'गोयमा ! अणादियस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' अनादिकस्याऽपर्यवसितस्याऽसिद्धस्याऽन्तरं नास्ति, गौतम ! अपयवसितत्वादेवाऽसिद्धलस्याऽअच्युतेः । 'अणादियस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतर' अनादिकालस्य सपर्यवसितस्याऽप्यन्तरं नास्ति पुनरप्यसिद्धत्वाऽयोगात् इति । अन्तर तो सपर्यवसित होने में होता है यहाँ सपर्यवसितता है नहीं यदि यहां पर भी अन्तर होने लगे तो वहाँ अपर्यवसितता नहीं आ सकेगी 'असिद्धस्सणं भंते ! केवइयं अंतरं होई' हे भदन्त ! असिद्ध जीव का अन्तर कितने काल का होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'अणोदियस्स अपज्जवसियस नथि अंतरं' हे गौतम ! जो जीव अनादि अपर्यवसित है उसके भी अन्तर नहीं होता है क्योंकि यह तो अनादि काल से ही असिद्ध है और अनन्त काल तक असिद्ध रहेगा फिर इसकी असिद्धावस्था छूटने का प्रश्न नहीं होता है 'अणादियस्ल सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' परन्तु जो जीव अनादि काल से असिद्ध चला आ रहा है परन्तु यह उसकी असिद्धता अनन्त काल तक रहने वाली नहीं है तो ऐसे जीव का भी अन्तर नहीं होता है। अब इनके अल्पबहुत्व का कथन इस प्रकार से है-'एएसिण भंते ! सिद्धाणं असिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा' અપર્યવસિત જીવ છે, તેને અંતર હોતું નથી. કેમકે અંતર સપર્યવસિત (હેવામાં હોય છે. અહીંયાં સપર્યસિતપણું છે જ નહીં જે અહીંયાં પણ मत२ या खाणे त त्यो मप सिता मनी श नही 'असिद्धस्स णं भंते । केवइयं अंतरं होई गवन् मसिद्ध पर्नु मत२ ३८सा गर्नु हाय छ ? २मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है 'अणादियस्स अपज्जवसियस्स नथि अंतर गौतम! 2 माह मयसित छ, तर ५ मत डा नथी. કેમકે તે તે અનાદિકાળથીજ અસિદ્ધ છે. અને અનંતકાળ સુધી અસિદ્ધ રહેશે पछी तनी मसिद्ध अवस्था शूटि पानी प्रश्न हात नथी. 'अणादियस्स सपज्जवसिय्स्स नस्थि अंतरं' ५२२०१ मनाहि थी मसिद्ध डाय छे. પરંતુ આ તેની અસિદ્ધતા અનંત કાળ સુધી રહેવાવાળી હોતી નથી. તે એવા જીવનું અંતર પણ હોતું નથી. तमना २५६५ महुपयानु थन ४२वामां मार छ. 'एएसि णं भंते । __--- सिद्धाणं असिद्धाणय कयरे कयरेहितो ! अप्पा वा बहुया वा' भगवन् सिक
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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