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________________ जीवाभिगमन 'अपढमसमय तिरिक्ख जोणियस्स जहन्नेणं खुड्डागं समयाहियं' अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकस्य जघन्येन समयाधिकक्षुल्लकभवग्रहणम् । तत्तु-तिर्यग्योनिकक्षुल्लकभवग्रहणचरमस्याऽधिकृताऽप्रथमसमयत्वात् तत्र मृतस्य मनुष्य क्षुल्लक भवग्रहणेन व्यवधाने सति तिर्यक्त्वेनोत्पद्यमानस्य प्रथमसमयातिक्रमे ज्ञातव्यम् अप्रथमसमयान्तरस्यैतावन्मात्रत्वादिति । 'उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुतं साइरेगे' उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकम् देवादिभवानामेतावत्कालत्वात् । 'पढमसमयमणूसस्स जहण्णेणं दो खुड्डागं भवग्गहणाई समऊगाई समयवर्ती तिर्यग्योनिक जीव हो जाता है । 'अपढम समयतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं अप्रथम समय वर्ती तियग्योनिक जीव का अन्तर जघन्य से एक समय अधिक क्षुल्लक भवग्रहण, रूप है और 'उक्कोसेणं सागरोवमसयपुटुत्त' उत्कृष्ट से सगरोपमशत पृथऋत्व रूप है इसका तात्पर्य ऐसा है कि तिर्यग्योनिक जीव का जो क्षुल्लकभव के ग्रहण करने का चरमसमय है वह अप्रथम समयरूप है इस अप्रथम समय में मृत हुआ वहजीव मनुष्य का क्षुल्लक भव ग्रहण करने रूप व्यवधान से व्यवहित हो जाता है फिर वह पुन: अप्रथम समयवर्ती तिर्यक रूप से उत्पन्न. हो जाता है अर्थात् अप्रथम समयवर्ती कोई तिर्यग्योनिक जोव मर कर मनुष्य के क्षुल्लक भव को धारण करने वाला हो गया और फिर वह वहां से भी मर कर पुनः अपनी पूर्व की स्थिति में आ गया तो इस परिस्थिति में उसे अपनी पूर्वस्थिति प्राप्त करने में एक સમાપ્ત કરીને તે મનુષ્યભવ ધારણ કરીને ફરીથી ત્યાંથી પ્રથમ સમય વતી तिययोनि १ २ लय छे. 'अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहणेणं खुडागं भवर-हणं समयाहियं मप्रथमसमयवती तिय योनि पर्नु तर धन्यथी ४ ,समय मधिक्षुस म ड ३५ छ. मने 'उक्कोसेणं सागरोत्रमसयपुहुत्त उत्कृष्टथी सागरी५म शत पृथत्व ३५ छे. मा ४थननु, તાત્પર્ય એવું છે કે- તિનિક જીવને ક્ષુલ્લક ભવ ગ્રહણ કરવા રૂપ જે શરમ સમય છે, તે અપ્રથમ સમય રૂપ છે. આ અપ્રથમ સમયમાં મરેલ તે! જીવ મનુષ્યના ક્ષુલ્લક ભવ ગ્રહણ કરવા રૂપ વ્યવધાનથી વ્યર્વહિત-વ્યવધાન વાળ થઈ જાય છે. તે પછી તે ફરીથી અપ્રથમ સમયવતી તિર્યગેનિક પણથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અર્થાત્ અપ્રથમ સમયવતી કે તિર્યગેનિક, જીવ મરીને મનુષ્યના ક્ષુલ્લક ભવને ધારણ કરવાવાળો થઈ જાય છે અને તે પછી તે ત્યાંથી પણ મરીને ફરીથી તે પિતાની પહેલાની સ્થિતિમાં આવી .
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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