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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.५ सू.१३५ सामान्यतो निगोदस्वरूपनिरूपणम् १९६६ किन्तु नो संख्येयोः नो संख्येयावा ज्ञेयाः। एवं सुहुमणिओय जीवा विपज्जत्तया वि अपज्जत्तया वि एवं पर्याप्तका अपि अपर्याप्तका अपि सूक्ष्मनिगोदजीवा द्रव्यार्यतयाऽनन्ता एव, नो संख्येया न वाऽसंख्येया वोद्धव्याः। 'बायरनिओय: जीवा वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्ता वि' एवं सामान्य वादरनिगोदवत् पर्याप्तका अपर्याप्तका अपि वादरनिगोदजीवा संख्येयाऽसंख्येयहीना अनन्ता ज्ञेयाः।' - संप्रति प्रदेशतया नवसूत्रेषु निगोदसूत्रत्रयमाह-'निओया णं भंते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जा० पुच्छा ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता; एवं पज्जत्तया वि अपज्जत्तया वि। एवं मुहुम णिओया वि पज्जतया वि अपज्जत्तया वि य पएसट्टयाए सव्वे अणंता' निगोदाः खलु भदन्त ! किसंख्येया असंख्येया अनंतावेति प्रश्नः प्रदेशार्थतया ? भगवानाह-गौतम ! अनन्ता एवं न संख्येया असंख्येया भवन्ति । एवं पर्याप्तका अपि अपर्याप्तकाअपि निगोदाः प्रदेशार्यतयाऽनन्ताः संख्येयाऽसंख्येया नेति संक्षेपः 'एवं सामान्यः निगोदवत्सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताश्चापि अपर्याप्ताश्चापि संख्येयाऽसंख्येयहीना अनंन्ता भवन्ति । किं बहुना-प्रदेशार्थतया सामान्यतो निगोदाः सूक्ष्मनिगोदा: पर्याप्ती अपर्याप्ताः सर्वे साकल्येन अनन्ताः न तु संख्येया असंख्येयावेति निष्कर्षः। 'एवं वायरनिओया वि पज्जत्तया वि अपज्जत्त्या वि' एवं 'एवं पज्जत्तगो वि अपज्जत्तगा वि' इसी प्रकार के इनके पर्याप्सक और अपर्यासक भेद रूप जो निगोद हैं वे भी हैं अर्थात् ये पर्याप्तक और अपर्याप्तक निगोद प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त ही हैं संख्यात या असं. ख्यात नहीं हैं । 'एवं सुहुम णिओया वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' इसी तरह से सूक्ष्म निगोद भी और उनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद भी प्रदेशों की दृष्टि से अनन्त ही हैं संख्यात या असंख्यात नहीं हैं । 'एवं बायर निगोया वि पज्जत्तया वि अप्पज्जत्तथा वि' पएसहयाए सव्वे गंता' इसी प्रकार के बादर निगोद भी और उनके पर्यातक अपर्याप्तक भेद भी प्रदेशों की दृष्टि से अनन्त ही है संख्यात या छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ -'गोयमा | नो सखेज्जा, नो भैसखेज्जा, अणंता' गौतम ! निगा। प्रशानी टिथी संन्यात नथी तभर मसभ्यात पण नथी. पर मनात छे. 'एवं पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' એજ પ્રમાણે તેમના પર્યાપક અને અપર્યાપ્તકના ભેદ રૂપ જે નિગદ છે તે પણ સમજવા. અર્થાત્ આ પર્યાપ્તક અને અપર્યાપક નિગદ પ્રદેશની દષ્ટિથી मनात छे, सभ्यात , मसभ्यात हात नथी. 'एवं सुहम णिओया वि पज्जत्तगो वि अपज्जत्तगा वि ४ प्रमाणे सूक्ष्म निगा पण मने तना
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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